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________________ उत्तरगुण : २३३ 'दुःख का कर्ता-हर्ता कोई अन्य नहीं है इस तरह का चिन्तन एकत्वानुप्रेक्षा है । "यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म और मरण को प्राप्त करता है और अकेले ही कर्मफल भोगता है।' दुःखी जीव स्वजन और परिजन के बीच दुःख सहता हुआ “मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, भवान्तर तक उसका कोई साथ नहीं देता। स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मों को भोगता हुआ दीर्घ संसार में घूमता रहता है-इस तरह एकत्व का चिन्तन करना एकत्वानुप्रक्षा है ।२ एकत्व भावना के चिन्तन से कामभोग में, शिष्यादि के समूह रूप गण या संघ में, शरीर अथवा सुख में आसक्ति नहीं होती अपितु वैराग्य में मन रमाये हुए सर्वोत्कृष्ट चारित्र-धर्म को धारण किये रहता है। ४. अन्यत्वानुप्रेक्षा-शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अर्थात् माता'पिता, स्वजन ओर सम्बन्धीजन सभी अपनी आत्मा से भिन्न हैं। ये बंधु-बांधव इहलोक में साथी रहते हुए भी परलोक तक हमारे साथ नहीं जाते । लोग एक दूसरे के विषय में शोक करते हैं, अपने विषय में नहीं करते कि "मैं संसार समुद्र में डूब रहा हूँ"-इस तरह का चिन्तन अन्यत्वानुप्रेक्षा है। शरीर और बाह्य पदार्थों से अपने को भिन्न चिन्तवन करना कि जब मैं इस शरीर तक से भी भिन्न हूं तब अन्य बाह्य पदार्थ कैसे मेरे हो सकते हैं ? ऐसी भावना अन्यत्व अनुप्रक्षा है। ५. संसारानुप्रेक्षा-कर्म-विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है । इसका स्वरूप-चिन्तन संसारानुप्रेक्षा है। यह आत्मा जलचर, थलचर और नभचर-इन तिर्यन्नों तथा मनुष्य, देव आदि गतियों में उत्पन्न होकर सहस्रों दुःख पाता है-इस प्रकार का चिन्तन करना भी संसारानुप्रेक्षा है। क्योंकि संसार के विविध प्रकार होते हुए, नानाविध दुख ही इनका स्थिर सार है । अतः संसार का स्वरूप समझते हुए, उसके सार रहितपने गुण को - - १. बारस अणुवेक्खा १४. २. मूलाचार ८1८-९. ३. एयत्त भावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा । सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं ।। भगवती आराधना २०२. ४. शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रक्षा-सर्वार्थसिद्धि ९।७।८०३ पृ० ३१७. “५. मूलाचार ८।१०-११. ६. सर्वार्थसिद्धि ९७. ५७. मूलाचार ८।१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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