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उत्तरगुण : २३१ पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ तथा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनायें इनसे भिन्न हैं । वस्तुतः भावना का अर्थ संस्कार भी है । क्योंकि भावना के बिना चित्त का संस्कार नहीं होता । अतः वैराग्य-वर्धन तथा आत्मिक उत्कर्ष के निमित्त भावना रूप तात्त्विक गहन चिन्तन आवश्यक है । योगशास्त्र के अनुसार भी भावना के द्वारा वैराग्य की ओर उन्मुख चित्त समभाव युक्त हो जाता है जिससे कषायों का उपशमन तथा सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।" इनके सतत् अभ्यास से बुद्धि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अवस्थित बनी रहती है । संसार संबंधी अनेक दुख, सुख, पीड़ा, आकुलता व्याकुलता, क्षणिकता आदि विषयों के अनुचिन्तन से मन की वृत्ति लौकिकता से हटकर अन्तर्मुखी हो जाती है । संयम और वैराग्य को साधना के लिए ये बहुत उपयोगी हैं । अनुप्रेक्षाएँ कर्मों का बंधन ढोला करती हैं | शुभ विचारों के उदय से अशुभ विचारों का आगमन रुक जाता है और अनुप्रेक्षा कर्मनिरोध का एक साधन बन जाती है । इनसे संस्कारित हुआ मन सहज ही ध्यान का अधिकारी बन जाता है । मूलाचार में भी कहा है कि इन अनुप्रेक्षाओं से वैराग्य की उत्पत्ति तथा रागद्वेष का विनाश होता है । जो इनसे आत्मा को युक्त करता है और वह आत्मा सभी कर्मों से रहित तथा निर्मल होकर विमलालय (मोक्ष) को प्राप्त करता है ।
द्वादश अनुप्रेक्षायें
अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ -- इन बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन का विवेचन किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्दकृत बारस - अणुवेक्खा तथा शिवार्यकृत भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में भी यही अनुप्रेक्षायें या भावनायें इसी क्रम से मिलती है । इतना ही नहीं इन अनुप्रेक्षाओं के कथन वाली गाथा भी तीनों ग्रन्थों में एक जैसी हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी यही द्वादश अनुप्रेक्षायें मिलती हैं। पर आचार्य
१. योगशास्त्र ४। १११.
२. आदि पुराण २१।९६-९९.
३. अणुवेक्खाहि एवं जो अत्ताणं सदा विभावेदि ।
सो निगदसव्वकम्मो विमलो विमलालयं लहूदि || मूलाचार ८ ७४.
४. अद्भुवमसरण मेगत्तमण्ण संसारलोयमसुइत्तं ।
आसव संवरणिज्जर धम्मं बोधि व चितिज्जो ।
वही ५/२०६, ८२, भगवती आ० १७१५, बारस अणुवेक्खा २.
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