SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन हितकर वचन बोलना चाहिए, चाहे वे हृदय को अप्रिय भले ही हों क्योंकि जैसे कटु (कड़वी) औषधि सेवन के समय कड़वी होने पर भी परिणाम में मधुर और कल्याणकारी होती है वैसे ही श्रमण का वह कटु किन्तु हितकारी भाषण कल्याणकारी होगा।' वस्तुतः श्रमण धर्म के प्रसंग में अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठावान् रहकर उसी रूप में उनका पालन करना अर्थात् आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता रखना सत्य धर्म है । मन, वचन और काय की एकरूपता भी सत्यता का ही रूप है । .१०. त्याग-निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य तथा आभ्यन्तर उपधि (परिग्रह) की निवृत्ति त्यागधर्म है । जो श्रमण मिष्ट भोजन, राग-द्वष उत्पन्न करने वाले उपकरण तथा ममत्वोत्पादक वसतिका को छोड़ देता है उसे त्याग धर्म होता है । श्रमण के योग्य ज्ञानादि का दान करना अर्थात् सदाचारी पुरुष द्वारा मुनि को प्रीतिपूर्वक आगम का व्याख्यान करना, शास्त्र देना, संयम पालन में साधनभूत पिच्छी आदि देना भी त्याग धर्म है । इस प्रकार ये दस श्रमणधर्म संवर के कारण हैं । वस्तुतः धर्म शब्द वस्तु का स्वभाववाची है । अतः आत्मा का धर्म समता भाव रूप ही है । शान्ति आदि दस धर्म तो इसके चिह्न हैं । जो धर्म लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए हों वे 'उत्तम' विशेषण विशिष्ट नहीं हैं। ऐसे धर्म कभी संवर के कारण भी नहीं बन सकते । ये क्षमा आदि दस धर्म जब अट्ठाईस मूलगुणों तथा सभी उत्तरगुणों के उत्कर्ष से युक्त होते हैं तभी श्रमण या यति धर्म की कोटी में आते हैं अन्यथा ये मात्र सामान्य धर्म हैं। अनुप्रेक्षा : जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना" वैराग्य वृद्धि के लिए शरीरादि के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का सामान्य अर्थ गहन चिन्तन करना भी है जिसका अपरनाम 'भावना' है । इसलिए बारह भावना, के रूप में प्रसिद्ध वैराग्यवर्धक चिन्तन-विशेष "द्वादशानुप्रेक्षा" ही हैं । १. भगवती आराधना ३५७. २. प्रवचनसार तात्पर्य वृत्ति २३९, पृ० ३३२. ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४०१. ४. पंचविंशतिका १।१०११४०. ५. अधिगतार्थस्य मनसाम्यासोऽनुप्रेक्षा-सर्वार्थसिद्धि ९।२५।८६८ पृ० ३३९... ६. शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रक्षा-वही ९।२।७८९. पृ० ३११.. ७. दस दो य भावणाओ""बुहजणवेररग जणणीओ-मूलाचार ८।७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy