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उत्तरगुण : २२९ नहीं होते उन्हें वही महानरक के समान दुःखद होता है।' असंयमी पुरुष को तपे हुए लोहे के गोले के समान कहा है जैसे उस गोले को जहाँ से भी छुओ वह जलाता ही है, उसी तरह असंयमी पुरुष चारों ओर से जीवों को कष्ट देनेवाला होता है। वह सोया हुआ भी अहिंसक नहीं होता, तब जागते हुए का तो कहना ही क्या ?
७. आकिंचन्य-(अकिंचनता)-आत्मा के अतिरिक्त मेरा किंचित् (कुछ) भी नहीं है-इस तरह का भाव रखना तथा शरीरादि मेरे है-इस प्रकार के भावों की कल्पना का भी त्याग करना आकिंचन्य धर्म है । वस्तुतः इस धर्म के माध्यम से जीवन में बाह्य वस्तुओं के प्रति अनासक्ति उत्पन्न करना है। शरीर तथा धर्मोपकरणों आदि में भी ममत्व भाव का सर्वथा अभाव आकिंचन्य धर्म है। जो श्रमण सभी परिग्रहों से रहित होकर, सुख-दुःख के दाता कर्मों को उत्पन्न करने वाले भावों को रोककर निश्चिन्त्यता से आचरण करता है उसे आकिंचन्य धर्म होता है ।
८. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म का अर्थ निर्मल ज्ञान-स्वरूप आत्मा है तथा उसमें लीन होना ब्रह्मचर्य है । अर्थात् जिस श्रमण का मन स्व शरीर तक से भी निर्ममत्व हो चुका है उसे ही ब्रह्मचर्य धर्म होता है ।६ व्यावहारिक रूप में जो श्रमण स्त्री-संगति नहीं करता, उनके रूप आदि को देखने में कोई रुचि नहीं रखता तथा काम आदि कथायें नहीं करता-सुनता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है। अतः इसकी साधना के लिए स्वतन्त्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करने को भी ब्रह्मचर्य कहा है ।
९. सत्य-पर-सन्तापकारी वचन न बोलना, निन्दा, कलह आदि से पूर्ण भाषण से निवृत्त होना सत्य धर्म है। श्रमण को अपने संघवासी श्रमणों से
१. दशवकालिक चूलिका १।१०. २. जिनदासकृत दशवै० चूणि पृ० २६१. ३. मूलाचार वृत्ति १११६. ४. शरीर धर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम्-तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९।६. ५. बारण अणुवेक्खा ७९. ६. पद्मनंदि पंचविंशतिका १२।२. ७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४०३. ८. सर्वार्थसिद्धि ९।६७९७ पृ० ३१५, तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ९।६।१०. ९. मलाचार वृत्ति १११५.
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