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उत्तरगुण : २२७ १. क्षान्ति (क्षमा)-क्रोधोत्पत्ति के साक्षात् बाह्य कारण मिलने पर भी अल्पमात्र भी क्रोध न करना, न वैसे परिणाम लाना उत्तम क्षान्ति अर्थात् क्षमा है।' जैसे शरीर की स्थिति के लिए आहारार्थ जब श्रमण नगर में निकलते हैं, तब मिथ्यात्वी जन उपहास, तिरस्कार तथा यहाँ तक कि शरीर पर आक्रमण तक करते हैं । ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार के कलुषतापूर्ण भाव मन में उत्पन्न न होने देना क्षान्ति है । क्षमा, तितिक्षा, सहिष्णुता और क्रोधनिग्रहये सभी शब्द एक हो अर्थ के वाचक हैं। क्षमा धारण करने की विधि यह है कि क्रोध उत्पन्न होने के जो निमित्त कारण हैं उनके सद्भाव और अभाव दोनों का अपने में चिन्तन करना चाहिए। क्योंकि उन कारणों के अस्तित्व या नास्तित्व का बोध हो जाने से इस धर्म की सिद्धि हो सकती है ।
२. मार्दव-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर-इन आठ मद-स्थानों का अभाव तथा मृदु-भावों का सद्भाव मार्दव धर्म है। उत्तम ज्ञान और तपश्चरण में प्रधान तथा समर्थ होने पर भी अपनी आत्मा को मान कषाय से मलिन न होने देना उत्तम मार्दव धर्म है ।
३. आर्जव-मन, वचन और काय से कपटपूर्ण भावों का सर्वथा अभाव तथा ऋजु (सरल) भावों का सद्भाव आर्जव धर्म है। कुटिल एवं मायाचारी युक्त योग परिणामों से रहित होकर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करना आर्जव है ।' भाव या परिणामों की विशुद्धि तथा विसंवाद (विवाद आदि दोष) रहित प्रवृत्ति को भी आर्जव धर्म माना गया है।
१. बारस अणुवेक्खा ७१, कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३९४. २. मूलाचार वृत्ति १११५, सर्वार्थसिद्धि ९।६, भगवती आराधना ४६।१५४,
तत्त्वार्थवार्तिक ९।६।२. ३. तत्त्वार्थभाष्य ९।६ पृ. ३८४. ४. ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार २५. ५. मृदो वो मार्दवं जात्यादिमदावेशादभिमानाभाव:-मूलाचार वृत्ति १११५. ६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३९५. ७. ऋजोर्भावः आर्जवं मनोवाक्कायानामवक्रता-मूलाचार वृत्ति ११।५. ८. बारस अणुवेक्खा ७३. ९. भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम्-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य-९।६।३.
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