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२२६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन लक्षण एवं निष्परिग्रहता उसका आलम्बन है।' समता, मध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव की आराधना-ये सब एकार्थवाचो शब्द है। यहाँ चारित्र आदि को भी धर्म कहा है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में धर्म की उक्त सभी परिभाषाओं को एकत्ररूप में उल्लेख मिलता है।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य-धर्म के ये दस भेद सामान्यतः सभी जैन शास्त्रों में दृष्टिगोचर होते हैं । दिगम्बर परम्परा के मूलाचार और श्वेताम्बर परम्परा के समवायांग सूत्र में उपर्युक्त कुछ के नामों और कुछ के क्रम में अन्तर है । अर्थ और संख्या की दृष्टि से सब में समानता है।
क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप संयम, अकिंचनता, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग-ये दस भेद मूलाचार के अनुसार है।
क्षान्ति, मुक्ति (अकिंचन्य), आर्जव, मार्दव, लाघव (शौच), सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य-ये दस भेद समवायांग सम्मत है। __उपर्युक्त दोनों परम्पराओं के क्रम और नाम दृष्टि से अल्पाधिक अन्तर के अतिरिक्त समानता है । समवायांग में मूलाचार के अकिंचणदा धर्म के स्थान पर मुत्ती (मुक्ति) और छागो (त्याग) के स्थान पर चियाए नाम मिलता है। किन्तु अर्थ दोनों का समान है। क्रमागत अन्तर स्पष्ट ही है। ये श्रमणधर्म होने के कारण प्रत्येक धर्म के साथ 'उत्तम' विशेषण भी तत्त्वार्थसूत्र को परम्परा से लेकर परवर्ती ग्रन्थों में मिलता है जैसे उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव आदि । प्रत्येक धर्म के आगे "उत्तम" विशेषण जोड़ने का अर्थ है सम्यग्दर्शन पूर्वक सर्वोत्कृष्ट क्षमा, मार्दव आदि धर्म ग्रहण करना, न कि ऊपरी या दिखावे मात्र को ये धर्म ग्रहण करना । इन दस धर्मों का विवेचन प्रस्तुत है
१. सर्वार्थसिद्धि ९।७।८१० पृ० ३१९. २. नयचक्र० वृ० ३५६. ३. धम्मो वत्थु-सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो । कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७८. ४. उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः
-तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ९।६. ५. खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो अकिंचणदा।
तह होदि बंभचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ।। मूलाचार १११५,८१६२. ६. दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे लाघवे सच्चे
संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे ।। समवायांग समवाय १०।१.
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