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उत्तरगुण : २२५ उठाना-रखना, दुष्प्रतिलेख-असावधानीपूर्वक शोधन करना, उपेक्षासंयमसंमूर्च्छनादि जीवों की उपेक्षा करना, अपहृत्यासंयम-पंचेन्द्रिय, द्विन्द्रियादि जीवों को एक जगह से निकालकर असावधानीपूर्वक दूसरे स्थानों में छोड़ देना इन चार में प्रवृत्ति न करना एवं मन, वचन और काय-इन तीनों की प्रवृत्ति जीवरक्षण में रखना-इस प्रकार सत्रह प्रकार का प्राणिसंयम है।' पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श तथा षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद-ये सप्त स्वर एवं मन-इन अट्ठाइस विषयों का निरोध करना अट्ठाईस प्रकार का इन्द्रियसंयम है। इन भेदों में से मन की प्रवृत्ति का निरोध नोइन्द्रिय संयम कहलाता है। चौदह प्रकार के जीवसमास की रक्षा प्राणसंयम है।
इस प्रकार संक्षेप में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य (शक्ति) का आत्मविशुद्धि हेतु उपयोग करना ही क्रमशः दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार कहलाता है । दशधर्म:
राग-द्वेषादि समस्त दोषरहित आत्मा का आत्मा में रत होना धर्म है। वस्तुतः वस्तु का स्वभाव धर्म है जिसका अर्थ शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना है । इसलिए धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है। जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख (वीतरागता) में धारण करता है वह धर्म है । वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है।५ धर्म को अहिंसा लक्षण वाला भी बताया गया है। ऐसे धर्म का भाधार सत्य है। विनय उसकी जड़, क्षमा उसका बल है। वह ब्रह्मचर्य से रक्षित है। उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका
१. अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेखुअवहटु संजमो चेव ।
मणवयणकायसंजम सत्तरसविधो दु णादवो ।। मूलाचार ५।२२० २. पंचरसपंचवण्णा दो गंधा अट्ठ फास सत्त सरा।
मणसा चोद्दसजीवा इन्दियपाणा य संजमो मो ॥ मूलाचार ५।२२१ ३. अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिजत्तो।
संसारतरणहेदु धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिटें ।। भाव पाहुड ८५. ४. वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः। शुद्धचैतन्य प्रकाशन मित्यर्थः। ततो यमात्मा धर्मेण
परिणतो धर्म एव भवति-प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका ७८. ५. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिबर्हणम् । ___ सं सारदुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार २.
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