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________________ २२४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ५. वीर्याचार : द्रव्य की स्वशक्ति विशेष का नाम वीर्य है।' शुभ कार्य में सामर्थ्य तथा उत्साह रखना वीर्याचार है ।२ ज्ञान, तप आदि के विषय में शक्ति का न अतिक्रमण करना और न अपनी शक्ति छिपाना वीर्याचार है। बल, वीर्य, शक्ति, पराक्रम और धृति-इन पाँच के आश्रय से योग्य आचरण करना भी वीर्याचार है । मूलाचार के अनुसार आहार, औषधि आदि से उत्पन्न बल और वीर्य को न छिपाकर उसका उपयोग प्राणिसंयम, इन्द्रियसंयम तथा तपश्चरण आदि में प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण और संवास-इन तीन अनुमति दोष रहित यथोक्त चारित्र में अपनी आत्मा को युक्त करना वीर्याचार है । तथा इन्हीं तीन अनुमति दोषरहित होकर वीर्याचार का पालन किया जाता है ।। __ इन तीन अनुमति दोषों में प्रथम प्रतिसेवा अनुमति दोष का अर्थ है-पात्र के उद्देश्य से लाई हुई आहारादि सामग्री का सेवन एवं ग्रहण करना ।" द्वितीय अनुमति दोष अर्थात् दाता द्वारा उद्देश्य की विज्ञप्ति के बाद भी यदि श्रमण आहारादि तथा अन्य उपकरण ग्रहण करता है या ग्रहण के बाद अपने को लक्ष्यकर लायी हुयी सामग्री का ज्ञान होने पर भी कुछ न बोलना या उसका त्याग न करना प्रतिश्रवण अनुमति दोष है।' तथा सावध से ममत्ववश संक्लेश परिणाम उत्पन्न होना अर्थात् गृहस्थ के साथ सदा सम्बन्ध रखते हुए उपकरणादि से ममत्व भाव रखना तृतीय संवास नामक अनुमति दोष है । ___ संयमयुक्त होकर भी वीर्याचार का पालन किया जाता है । प्राणिसंयम एवं इन्द्रियसंयम इन दो संयमों में प्राणिसंयम के सत्रह भेद हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-इन पंचकायिक जीवों, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-इन चार प्रकार के त्रस जीवों तथा अजीवकाय की रक्षा करना-दस प्रकार का संयम है। अप्रतिलेख–बिना देखे-शोधे पदार्थ १. द्रव्यस्य स्वशक्ति विशेषो वीर्यम्-सर्वार्थसिद्धि ६।६. पृ० ३२३. २. मूलाचार वृत्ति ५।२. ३. बलवीरियसत्तिपरक्कमधिदिबलमिदि पंचधा उत्तं । तेसिं तु जहाजोग्गं आचरणं वीरियाचारो॥ -कुन्दकुन्दकृत माना जाने वाला मूलाचार ५।२३९ ४. अणुगूहिदबलविरिओ परिक्कामदि जो जहुत्तमाउत्तो । जुजदि य जहाथाणं विरियाचारोत्ति णादवो ॥ मूलाचार ५।२१६. ५. वही ५।२१७. ६. वही, ५।२१८. ७. वही, ५।२१९. ८. वही, ५।२१९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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