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। उत्तरगुण : २२३ गुप्तिः-संसार के कारणों से आत्मा की सम्यक् प्रकार में रक्षा करना अथवा मन, वचन और काय की अशुभयोग रूप प्रवृत्ति का निग्रह तथा निर्दोष प्रवृत्ति का नाम गुप्ति है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का रक्षण तथा मिथ्यात्व, असंयम और कषायों से आत्मा का रक्षण करने वाली गप्तियाँ हैं।' जैसे खेत का रक्षण बाड़ (बाड़ी) तथा नगर का रक्षण प्राकार या खाई (परिखा या तट) करती हैं वैसे ही अशुभ कर्मों से ये गुप्तियाँ श्रमण की रक्षा करती हैं ।२ हिंसा, चोरी, असत्य भाषण आदि रूप सावध (पाप) कार्यों से मन की प्रवृत्ति, वचन का व्यापार और मन की चेष्टा का निवारण करना क्रमशः गुप्ति के तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति । रागद्वेष से मन में उत्पन्न सभी तरह के संकल्पों का त्याग मनोगुप्ति है । असत्य कटु आदि वचनों का त्याग तथा मौन धारण करना वचनगुप्ति है । शारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग करना एवं हिंसादि पापों से निवृत्त होने का नाम कायगुप्ति है। इस तरह मन, वचन और कायरूप योग को प्रवृत्ति को ध्यान और स्वाध्याय में समाहित करना चाहिए । ४. तपाचार: ____ कायक्लेशादि रूप बारह प्रकार के तपों में कुशल एवं अग्लान रहना तथा उत्साहपूर्वक इन तपों का अनुष्ठान करना तपाचार है ।
तपाचारके बाह्य और आभ्यन्तर ये दो भेद हैं। बाह्य तपाचार के अनशन अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश तथा विविक्तशयनासन-ये छह भेद हैं तथा आभ्यन्तर तपाचार के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये छह भेद हैं-इस तरह तपाचार के बारह भेद हैं।' आभ्यन्तर तपाचार से विशुद्ध परिणाम तथा बाह्य तपाचार आभ्यन्तर तपाचार की वृद्धि में सहायक होता है । १. मूलाचार वृत्ति ५।१३६. २. खेत्तस्स वई णयरस्स खाझ्या अहवा होइ पायारो।
तह पावस्य णिरोहो ताओ गुत्तीउ साहुस्स ।। मुलाचार ५।१३७. ३. वही ५।१३४.
४. वही ५।१३५. ५. वही ५।१३६.
६. वही ५।१२८. ७. मूलाचार वत्ति ० ५।२. ८. दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भतरो मुणेयव्यो ।
एक्कक्को वि य छद्धा जधाकम्मं तं परूवेमो ॥ मूलाचार ५।१४८. ९. वही ५।२१५. ... .
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