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२२२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भी ऐसा कथन करना कि मैंने इन गुणों से युक्त गुरु से शास्त्राध्ययन किया हैयह निह्नवदोष है।'
६. व्यंजन-सूत्र का वचन करना, वर्ण, पद और वाक्यों का शुद्ध उच्चारण करना तथा व्याकरण के आश्रय से निरुक्तिपूर्वक सूत्रग्रन्थ पढ़ना व्यंजन ज्ञानाचार है।
७. अर्थ-अर्थबोध करना अर्थात् शास्त्र में अनेकान्तात्मक अर्थ का समन्वय करके अविरोध पूर्वक अर्थ प्रतिपादन करना अर्थ ज्ञानाचार है ।
८. तदुभय (व्यंजनार्थोभय)-सत्र अथवा शब्द (व्यंजन) और अर्थशुद्धि के साथ शास्त्र का अध्ययन करना तदुभय ज्ञानाचार है। ३. चारित्राचार :
प्राणिवध से निवृत्ति तथा इन्द्रियजय में प्रवृत्ति रूप चारित्र गुणयुक्त होना चारित्राचार कहलाता है। प्राणिवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथुन और परिग्रह-इन पाँच पापों से विरत होना पाँच प्रकार का चारित्राचार है । मन, वचन और काय की शुभप्रवृत्ति रूप प्रणिधानयोग युक्त तीन गुप्ति और पाँच समिति अर्थात् अष्टप्रवचनमाता के भेद से चारित्राचार के आठ भेद भी हैं। जैसे माता पुत्र की रक्षा करती है वैसे ही मुनियों के रत्नत्रय का रक्षण और संवर्धन ये अष्ट प्रवचनमाता करती हैं।'
चारित्राचार के अष्टप्रवचनमाता रूप आठ भेदों में पांच समितियों का विवेचन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। यहाँ शेष तीन भेद रूप तीन गुप्तियों का स्वरूप प्रस्तुत है
१. मूलाचार ५१८७. २. मूलाचार वृत्ति० ५।७२, ८८. ३. मूलाचार ५१७२ वृत्तिसहित. ४. वही. ५. प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसंयमनप्रवृत्तिश्चारित्राचार :-मूलाचार वृत्ति ५।२. ६. मूलाचार ५।९०. ७. पाणिवहमुसावाद अदत्त मेहणपरिग्गहा विरदी ।
एस चारित्ताचारो पंचविहो होदि णादवो ॥ वही ५।९१. ८. पणिधाण जोगजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ।
एस चरित्ताचारो अट्टविहो होइ णायन्वो ॥ वही ५।१००. ९. एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं ।
रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ ।। वही ५।१३९.
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