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________________ उत्तरगुण : २२१ प्रादोषिक काल, वैरात्रिक (रात्रि का पश्चिम भाग) और गौसर्गिक-इन चार कालों में पठन, परिवर्तन, व्याख्यान आदि कार्य करना काल ज्ञानाचार है।' २. विनय-ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्नों में सदैव विनम्रता का भाव रखना, जैसेपुस्तकादि को पिच्छिका से शुद्धि करके, हाथ जोड़कर, प्रणाम करके स्वशक्त्यानुसार शुद्धोपयोगपूर्वक सूत्रार्थ का अध्ययन करना विनय ज्ञानाचार है । अर्थात् मन, वचन और काय के निर्मल परिणामों युक्त हो श्रुत का पठन-पाठन, व्याख्यानादि करना विनय ज्ञानाचार है।३ ३. उपधान-श्रुतवाचन आदि के समय तप करना अर्थात् रसपरित्याग आदि के नियम पूर्वक अध्ययनादि करना उपधान ज्ञानाचार है। जैसे आचाम्ल (कांजी के साथ भात), निविकृति (जिससे जिह्वा एवं मन विकार रहित हों ऐसा घी, दही आदि से रहित ओदन आदि रूप अन्न) तथा अन्य पक्वान्न-ये अन्न शास्त्र-स्वाध्याय की एकाग्रता में सहायक होने से उपघान कहलाते हैं । ४. बहुमान-शान के प्रति आन्तरिक अनुराग अर्थात् पूजा एवं सत्कारपूर्वक पठनादि कार्य करना बहुमान ज्ञानाचार है । अंगश्रुत के सूत्रार्थों का शुद्ध पठन-पाठन, उच्चारण और प्रतिपादन करने से कर्मों की निर्जरी होती है। अतः श्रमण को आचार्य, शास्त्रादि की आसादना न करने उनकी विनय, पूजन आदि द्वारा बहुमान प्रगट करना बहुमान है। ५. अनिह्नव-विद्यागुरु, आचार्य आदि का नाम न छिपाना अथवा जिस श्रुत के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त किया हो उस श्रुत को प्रगट करना अनिह्नव ज्ञानाचार है। कुल, व्रत और शील विहीन साधु या गुरु से शास्त्र पढ़कर के. १. पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता । उभये कालह्मि पुणो सज्झाओ होदि काययो ।। मूलाचार ५।७३. २. वही ५।८४. ३. मूलाचार वृत्ति ५।७२. ४. मूलाचार ५।७२, ८५. ५. आयंविल णिवियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो ॥ वही ५।८५. ६. मूलाचार वृत्ति ५।७२. ७. मूलाचार ५।८६. ८. मूलाचार वृत्ति ५।७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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