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२२० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
इस तरह जिनोपदिष्ट तत्त्वार्थों का स्वरूप भावतः सत्य है-ऐसा मानना सम्यग्दर्शन है तथा इसके विपरीत श्रद्धा रखना मिथ्यादर्शन है ।' संवेग (संसारभय) वैराग्य, निंदा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य-ये आठ गुण भो सम्यग्दर्शन के ही हैं । दर्शनाचार के पूर्वोक्त आठ अंग भी कहे जाते हैं । २. ज्ञानाचार:
ज्ञानाचार से तात्पर्य श्रुतज्ञान विषयक आचरण अर्थात् मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन पाँच ज्ञानों की उत्पत्ति के कारणभूत शास्त्रों का अध्ययन, आदर आदि करना ज्ञानाचार है। यहां ज्ञान से तात्पर्य सम्यग्ज्ञान है । जिसके द्वारा तत्व का स्वरूप ज्ञात किया जाता है, चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है, जिसके आश्रय से आत्मा विशुद्ध (वीतराग) बन जाता है। जिसके द्वारा जीव राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विभावों से विरक्त होकर श्रेयस (स्व कल्याण) में अनुरक्त होता है तथा मैत्रीभाव की ओर बढ़ता है ऐसा ही ज्ञान जिन शासन में प्रमाण है ।
ज्ञानाचार के भेद-काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय-इनकी शुद्धिपूर्वक ज्ञान का अभ्यास करना ज्ञानाचार है । ये ही ज्ञानाचार के आठ भेद कहलाते हैं ।५
१. काल-कालक्रमानुसार निर्धारित कार्यों को उसी के अनुसार करना अथवा स्वाध्याय काल-विशेष में शास्त्र पठन, पुनः पुनः उच्चारण, व्याख्यान आदि कार्य जिस समय किये जाने का विधान है उन्हें उसी समय करना कालज्ञानाचार है । ६ जैसे रात्रि के पूर्वभाग एवं दिन के पश्चिम भाग रूप दो
१. मूलाचार ५।६८, २. कुन्द० मूलाचार ५।८३. ३. पंचविधज्ञाननिमित्तं शास्त्राध्ययनादिक्रिया ज्ञानाचारः । मूलाचार सवृत्ति ५।२. ४. जेण तच्च विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे ॥ जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि ।
जेण मित्ती पभावेज्ज तं गाणं जिणसासणे ॥ मूलाचार ५।७०, ७१. “५. काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अविहो ।
-वही ५।७२, दशवकालिक नियुक्ति १८४. ६. मूलाचार वृत्ति ५।७२.
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