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उत्तरगुण : २१९ .:दि साधु), तथा अन्यान्य पाखंडी साधुओं को संसार से पार करने वाला मानना समयमूढ़ता है ।' ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, आर्या (पार्वती), स्कन्द (कार्तिकेय) आदि देव देवत्वभाव एवं सर्वज्ञत्व से रहित कहे गये हैं फिर भी इन्हें देव समझना देवमूढ़ता है । ___उपयुक्त लौकिक, वैदिक, समय या सामयिक तथा देव-ये चारों मूढ़ताएँ सम्यक्त्व की घातक है । अतः इनका सर्वथा त्याग करना चाहिए।
५. उपगृहन-सम्यग्दर्शन और चारित्र से मलिन सार्मिक को धर्मभक्ति के भावों से उसके दोषों को ढकना उपगृहन अंग है । यह अंग दर्शन और चारित्रगुण को निर्मल करता है। मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका-इस रूप चतुर्विध संघ के दोषों को आच्छादित करना या इनके द्वारा हुए प्रमादाचरण को प्रगट न करना उपगृहन अंग है।"
६. स्थितिकरण-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट जीवों को देखकर धर्म बुद्धिपूर्वक, हित, मित और प्रिय वचनों द्वारा दोष दूरकर शीघ्र ही रत्नत्रय में स्थिर करना स्थितिकरण है।६
७. वात्सल्य-जैसे गाय अपने बछड़े पर स्नेह रखती है, वैसे ही चतुर्गति के भ्रमण का नाश करने वाले ऋषि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुः संघ में वात्सल्यभाव रखना चाहिए।
८. प्रभावना-धर्मकथा आदि के कथन, आतापन, वृक्षमूल आदि योगों द्वारा तथा हिंसादि दोष रहित अपने अहिंसामय धर्म की जीवदया, अनुकम्पा, दान, पूजा आदि द्वारा प्रभावना करना चाहिए ।
१. रत्तवडचरगतावसपरिहत्तादीय अण्णपासंढा ।
संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूडो सो ।। मूलाचार ५।६२. २. ईसरबंभाविण्हू अज्जाखंदादिया य जे देवा ।
ते देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो । वही ५१६३. ३. वही ५।५९. ४. वही ५।६४. ५. मूलाचार वृत्ति ५।४. ६. मलाचार ५१६५. ७. चादुव्वण्णे संघे चदुगदिसंसारणित्थरणभूदे ।
वच्छल्लं कादव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धी ।। वही ५।६६. ८. वही ५।६७.
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