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________________ २१८ ; मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन १. निःशंकित-निश्चय के अभाव को शंका कहते हैं। इसके विपरीत जिसमें वस्तुस्वरूप का निश्चय होने से परिणामों में जो दृढ़ता होती है उसे निःशंकित कहते हैं। १. नि:कांक्षित-इहलोक और परलोक के भोगों की अभिलाषा 'कांक्षा' कहलाती है। इस कांक्षा का अभाव अर्थात् इन भोगों में रुचि का अभाव निष्काक्षित है । इहलोकाकांक्षा, परलोकाकांक्षा और उभय लोकाकांक्षा-इन तीनों कांक्षाओं का अभाव निःषकांक्षित है ओर ये हो इसके तीन भेद हैं।' ३. निविचिकित्सा-विचिकित्सा का अर्थ 'ग्लानि' है। द्रव्य और भावये इसके दो भेद हैं । उच्चारादि अर्थात् मल-मूत्र, इलेष्म, चर्म, मांस, जल्ल-मल्ल युक्त शरीर आदि देखकर ग्लानि उत्पन्न होना द्रव्य विचिकित्सा है तथा क्षुधा, तृषा, दंशमशक, नग्नतादि के प्रति मन में ग्लानि उत्पन्न होना भावविचिकित्सा है । इन दोनों प्रकार की विचिकित्सा का अभाव निर्विचिकित्सा है ।। ४. अमढष्टि-लौकिक, वैदिक समय या सामयिक अर्थात अन्यान्य दार्शनिक मतों के आचार तथा मिथ्या देवों आदि में श्रद्धा का भाव होना मूढदृष्टि है । मूढ़दृष्टि के चार भेद हैं-लौकिक, वैदिक, सामयिक तथा अन्यदेवमूढ़ता । कौटिल्य, (कौटिल्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र) आसुरक्ष अर्थात् भय, प्राणघात, वंचना आदि के माध्यम से जिस धर्म-कार्य, चाणक्य आदि के उपदेश या ग्रन्थ में प्राण रक्षा के विधान का प्रतिपादन किया गया हो, भारत (महाभारत), रामायण आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित कुछ असद्धर्म की बातों को सच्चा समझना लौकिक मूढ़ता है ।४ ऋग्वेद, सामवेद, वाक्-ऋचा, अनुवाक अर्थात् मनु आदि की स्मृतियाँ आदि शास्त्र हिंसा के भी उपदेशक होने से तुच्छ अर्थात् धर्मरहित हैं । अतः ऐसे शास्त्रों पर श्रद्धा करना वैदिकमूढ़ता है।" रक्तपट (बौद्ध), चरक (कणचर या नैयायिक-वैशेषिक), तापस (कन्दमूल फलादि का आहार करने वाले वनवासी, जटा, कौपीन आदि धारी साधु), परिव्राजक (एक दण्डी, त्रिदण्डी १. मलाचार ५१५२. २. वही ५:५५. ३. लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं । णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए ।। वही ५।५९. ४. कोडिल्लमासुरक्खा भारहरामायणादि जे धम्मा । होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो हवदि एसो ।। वही ५।६० सवृत्ति . ५. रिव्वेदसामवेदा वागणुवादादिवेदसत्थाई। तुच्छाणि ताणि गेण्हइ वेदियमूढो हवदि एसो ॥ वही वृत्तिसहित ५।६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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