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उत्तरगुण : २१७
२२. महावतों आदि तथा अन्यान्य तपश्चरण करने के बाद भी ऋद्धि आदि उत्पन्न न होने पर खेद-खिन्न न होना अथवा ऋद्धि आदि की सिद्धि के अलावा आत्म-कल्याण के लिए श्रद्धापूर्वक महावत आदि का पालन करते रहना अदर्शन परोषह क्षमण है।'
उपर्युक्त बाइस परीषह में से अन्य ग्रन्थों में सातवीं अरति परीषह का नाम आया है किन्तु मूलाचार में अरतिरति परीषह क्षमण का नामोल्लेख है, जिसका अर्थ असंयम में अरुचि और संयम में रुचि का होना है। ___ इस प्रकार ये परीषह श्रमण जीवन में बहुत उपयोगी हैं क्योंकि श्रमणजीवन में विविध बाधायें , प्रतिकूलतायें तथा उपसर्गादि तो बने ही रहते हैं । किन्तु इन्हें समतापूर्वक सहते हुए अपनी लक्ष्य-सिद्धि में लगे रहने को हो परीषह-जय कहा है। इस विषय में यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि परीषहों का जैसा विवेचन जैन आचार विषयक वाङ्मय में मिलता है अन्य परम्पराओं में नहीं। पंचाचार: ____सामान्यतः सिद्धान्तों, आदर्शों तथा विधि-विधान का व्यावहारिक-प्रयोगास्मक अथवा क्रियात्मक पक्ष 'आचार' कहा जाता है। जैन दृष्टि में अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल सम्यग्दर्शनादि में यत्नशील रहना आचार है। आचार शब्द के तीन भेद हैं-आचरण, व्यवहरण और आसेवन ।।. आचार के भेद :
दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार-ये आचार के पाँच भेद हैं । इनका विवेचन प्रस्तुत है१. दर्शनाचार :
सम्यग्दर्शन विषयक आचरण अर्थात् शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित तत्त्वश्रद्धान रूप विषयों में किया गया प्रयत्न दर्शनाचार है।"
दर्शनाचार के निम्नलिखित आठ प्रकार हैं । ६ १. मूलाचार वृत्ति ५।५७-५८. २. सागारधर्मामृत ७।३५. ३. आचरणमाचारो व्यवहारः-स्थानाङ्ग वृत्ति पत्र ६०. ४. दंसणणाण चरित्ते तवे विरियाचरह्मि पंचविहे।
वोच्छं अदिचारे हं कारिदमणुमोदिदे अ कदे ॥ मूलाचार ५।२.
मूलाचार वृत्ति ५।१७१. ६. णिस्सकिद णिक्कंखिद णि विदिगिच्छा अमढदिट्ठी य ।
उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा य ते अट्ठ ॥-मूलाचार ५।४.
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