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________________ उत्तरगुण : २१५ आत्म साधना में लीन मुमुक्ष को अपने लक्ष्य में पूर्ण सफलता प्राप्ति के लिए आत्म-साधना, तपश्चरण आदि के साथ ही विविध उपसर्ग और परीषह सहने का सहज अभ्यस्त होना आवश्यक होता है । अतः आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार श्रमण को आगमानुकूल प्रमादरहित होकर, संयम के घातक कार्यों को छोड़कर सदा बाईस परीषहों का सहन करने का अभ्यस्त हो जाना चाहिए।' परीषह के भेद : क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, अचेलभाव, अरति-रति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, अयाचन, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन-ये बाइस परीषह हैं ।२ इनमें से प्रत्येक परीषह का स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है १. चारित्र मोहनीय और वीर्यान्तराय कर्म से असाता वेदनीय का उदय होने पर भोजन की अभिलाषा उत्पन्न होने पर भी उसे समता पूर्वक सहन करना क्षुधा-परीषह क्षमण है ।। २. पानी पीने की इच्छा उत्पन्न होने पर उसे सहन करना तृषा परीषह क्षमण है। ३. वस्त्र, कंबलादि औढ़ने की इच्छा न करके शीत सहन करना शीत परीषह क्षमण है। ४. सूर्य की उष्णता और ज्वर आदि के संताप की पीड़ा सहन करना उष्ण परीषह क्षमण है। ५. डांस, मच्छर, पिस्सू, खटमल, चींटी आदि के द्वारा उपस्थित बाधा (पीड़ा) सहन करना दंशमशक परीषह क्षमण है । ६. नग्नता से उत्पन्न संक्लेश-सहन करना अचेल या नाग्न्य परीषह क्षमण है। ७. असंयम के प्रति मन में अरति-अरुचि उत्पन्न होना अर्थात् इन्द्रिय विषयों के प्रति निरुत्सुक तथा प्राणियों के प्रति सर्वदा सदय होना अथवा संयम में अरुचि और असंयम में रुचि उत्पन्न न होने देना अरतिरति परीषह क्षमण है। १. भावपाहुड, ९४. छुहतण्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेल भावो य । अरदिरदिइत्थिचरियाणिसीधिया सेज्ज अक्कोसो ॥ बधजायणं अलाहो रोग तणप्फास जल्लसक्कारो। तह चेव पण्ण परिसह अण्णाणमदंसणं खमणं ॥ मूलाचार ५।५७, ५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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