SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन परीषह-क्षमण (परीषहजय) : श्रमण जीवन का साधना मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान है। उसमें सदा मन, वचन और काय सम्बन्धी कष्ट, वेदना, दुःख तथा विघ्न-बाधाओं आदि प्रतिकूलताओं का आना कोई बड़ी बात नहीं है। किन्तु उनसे विचलित न होते हुए समताभाव से उन्हें सहकर आत्मिक विकास में लगे रहना आवश्यक होता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि दुःखों का अनुभव किये बिना प्राप्त किया गया ज्ञान दुःख पड़ने पर नष्ट हो जाता। अतः मुनि को शक्ति के अनुसार दुखों के साथ आत्मा की भावना करना चाहिए । अर्थात् आत्मानुभव के साथ दुःखों को सहन करने की शक्ति होनी चाहिए । इन्हीं दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए श्रमणाचार में परीषह-क्षमण अर्थात् परीषह जय का विधान किया गया। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा विघ्न-बाधायें या कष्ट सदा एक समान नहीं होते, उनमें भिन्नता होती है। जैन परम्परा में विघ्न-बाधाओं या कष्ट आदि को समतापूर्वक सहन करने को परीषहजय कहा जाता है । परीषह की परिभाषा करते हुए उमास्वामी ने कहा है कि अपने मार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूख-प्यास आदि जो दुःख, कष्ट या विघ्न सहन किये जायें उन्हें परीषह कहते हैं। वैसे जो सहीं जायें वे परीषह हैं और परीषहों का जय परीषह जय है। अर्थात् क्षुधा आदि की वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परोषह है और परीषह का जीतना परीषह जय है । भाव पाहुड में कहा है कि जैसे पत्थर चिरकाल तक जल में डूबे रहने पर भी उस पत्थर में न तो जल प्रवेश कर पाता है और न अन्दर से गीला ही होता है, इसी प्रकार श्रमण को उपसर्ग और परीषहों के उदय से खेदखिन्न नहीं होना चाहिए।वस्तुतः साधना-मार्ग में आने वाले कष्टों को समता भाव से सहना चाहिए, चाहे वे कष्ट जीवों द्वारा या प्रकृति द्वारा ही क्यों न किये गये हों। जैसे उष्णता, ताडन आदि सहन करने के बाद ही स्वर्ण शुद्ध होता है वैसे ही १. अदुःखभावितं ज्ञानं हीयते दुःख सन्निधौ । तस्माद् यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥ समाधितंत्र १०२. २. मार्गाच्यवन निर्जराथं परिषोढव्याः परीषहाः-तत्त्वार्थसूत्र ९१८. ३. परिपूर्वात्सहेः कर्मण्यकारः परिषह्यत इति परीषहः। परीषहस्य जयः परीषहजयः-तत्त्वार्थवार्तिक ९।२।६ पृ० ५९२. ४. क्षुधादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थं सहनं परीषहः। परिषहस्य जयः परिषहजयः -सर्वार्थसिद्धि ९।११७८९ पृ० ३१२. ५. भाव पाहुड ९५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy