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________________ उत्तरगुण : २१३ व्युत्सर्ग के दो भेद हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। तथा क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयनासन, कुप्य (वस्त्र) और भाण्ड (पात्र)-ये दस प्रकार के बाह्य परिग्रहों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है। भगवती सूत्र और ओपपातिक सूत्र में उपर्युक्त दो भेदों को क्रमशः द्रव्य-व्युत्सर्ग और भाव-व्युत्सर्ग नाम से उल्लिखित किया है। इनमें द्रव्य-व्युत्सर्ग के ४ भेद किये गये हैं। १. शरीर-व्युसर्ग अर्थात् शरीर चंचलता का त्याग, २. गणव्युत्सर्ग-विशेष साधना के निमित्त गण का त्याग ३. उपधि-व्युत्सर्ग और ३. भक्त-पान-व्युत्सर्ग । भाव-व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं-१. कषाय व्युत्सर्ग, २. संसार-व्युत्सर्ग (परिभ्रमण का त्याग) तथा ३. कर्म-व्युत्सर्ग अर्थात् कर्मपद्गलों का त्याग ।२ उपर्युक्त छह बाह्य और छह आभ्यन्तर-इन बारह प्रकार के तप से युक्त हो जो विधिपूर्वक अपने कर्मों का क्षयकर व्युत्सर्ग-निर्ममता पूर्वक शरीर-त्याग करते हैं वे अनुत्तर निर्वाण पद को प्राप्त होते हैं। क्योंकि तप का लक्ष्य रागद्वेष आदि विकारों को सदा के लिए दूरकर आत्मपरिशोधन है न कि मात्र देहदमन । तप के माध्यम से आत्मशुद्धि हेतु विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को। शरीर तो आत्मविशुद्धि और आत्मसाधना का माध्यम मात्र है। वस्तुतः जो ज्ञान-स्वभाव की भावना भाता है उसे बाह्य तप स्वयमेव हो जाता है । और आभ्यन्तर तप तो स्वयं आत्मा, ज्ञान, ध्यान आदि रूप है जो आत्मविशुद्धि का साक्षात् साधन है । अतः तप को साधक जीवन की कसौटी माना जाता है । इस प्रकार बाह्य और आम्यन्तर रूप इन बारह तपों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु साधना के क्षेत्र में ये तप दिव्य रसायन हैं । यद्यपि साधना पद्धति के अनेक अंग और तत्त्व है किन्तु प्रायः सभी का अन्तर्भाव तप के उपर्युक्त प्रकारों एवं उनके विश्लेषण में है। इस दृष्टि से साधना की 'सम्पूर्ण पद्धति' के रूप में ये सभी तप साधक को कल्याणकारी होनें से उपादेय हैं। इतना ही नहीं आज भौतिक जगत् में मानसिक, वैचारिक तथा परस्पर बढ़ते तनाव और अशान्ति को दूर करने में इन तपों की आंशिक साधना तक के अच्छे परिणाम सर्व सामान्य को भी प्राप्त हो सकते हैं । १. मूलाचार ५।२१००२११ । २. भगवती सूत्र २५१७७८२, औपपातिक सूत्र २०. ३. दसणपाहुण ३६, उत्तराध्ययन ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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