SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चाहिए। क्योंकि आचार्यों ने ध्यान के अन्तर्गत बताया है कि संसारी भव्य पुरुष ध्यान का साधक होता है, उज्ज्वल ध्यान साधन है, मोक्ष साध्य है तथा अविनश्वर सुख ध्यान का फल है ।' ध्यान के चार भेदों में आर्त और रौद्र-ये अप्रशस्त ध्यान महासंसार का भय उत्पन्न करने वाले और देव तथा मोक्ष गति के सर्वथा प्रतिकूल हैं । अतः इनका त्याग कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अपना मन लगाना चाहिए। क्योंकि कषायों के क्षयार्थ आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लवलीन होने वाले शुक्ल लेश्यायुक्त श्रमण को कषायें कभी भी पीड़ा नहीं देतीं। जैसे-चारों दिशाओं में बहने वाली वायु से गिरिराज (मेरु पर्वत) कभी चलायमान नहीं होता उसी प्रकार योगी को भी अचलित रूप से ध्यान को निरन्तर ध्याते हुए कभी उपसर्गादि से विचलित नहीं होना चाहिए । वस्तुतः ध्यान भले ही चार प्रकार के हों, किन्तु चारों ध्यान तप नहीं है । तप की कोटि में सिर्फ दो ही ध्यान हैं-धर्म और शुक्ल । बाकी जितने तप है वे सब ध्यान के साधन मात्र कहे जा सकते हैं । ६. व्युत्सर्ग (विस्सग्ग) तप : क्रोधादि रूप आभ्यन्तर और क्षेत्र, धन, धान्यादि रूप बाह्य परिग्रह का त्याग व्युत्सर्ग तप है ।" इसमें सब पदार्थों यहाँ तक कि अपने शरीर व प्राण के प्रति भी मोह का त्याग किया जाता है, तभी सर्वत्र, सर्वदा निर्ममत्व-भाव की पवित्र भावना रूप व्युत्सर्ग तप किया जा सकता है । उत्तराध्ययन में कहा है सोने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ की चेष्टा नहीं करता, यह शरीर का व्युत्सर्ग 'व्युत्सर्ग' नामक छठा तप है। व्युत्सर्ग शब्द में 'वि' का अर्थ विशिष्ट और 'उत्सर्ग' का अर्थ त्याग--अर्थात् त्याग करने की विशिष्ट विधि को व्युत्सर्ग कहते हैं। इस तरह निःसंगता (अनासक्ति), निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है।" १. अमितगति श्रावकाचार अध्याय १५, पद्य ७-८. २. मूलाचार ९।११७. ३. वही ९।११८. ४. षड्खण्डागम ५, पु० १३ पृष्ठ ६४. ५. उत्तराध्ययन ३०।३६. ६. मूलाचार ५।२०९. ७. निःसंग-निर्भयत्व जीविताशा व्युदासाद्यर्थी व्युत्सर्गः-तत्त्वार्थवार्तिक ९।२६।१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy