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________________ उत्तरगुण : २११ ही वह ध्याता भी मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों का उपशम और क्षय करता हुआ पृथक्त्ववितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान को धारण करने वाला होता है । वही ध्याता जड़मूल से मोहनीय कर्म को नष्ट करने की इच्छा से पहले से भी अनन्त गुणे विशुद्ध ध्यान का आलम्बन लेकर अर्थ, व्यंजन और योग को संक्रान्ति से रहित, निश्चलमन वाला वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप जब वह क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तो फिर ध्यान लगाकर पीछे नहीं हटता । इसलिए उसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान युक्त कहा जाता है । इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा चार घातिया कर्मरूपी ईंधन जला देने पर जैसे मेघमण्डल का निरोधकर अर्थात् जैसे मेघ पटल के हट जाने पर मेघों में छिपा सूर्य प्रकट हो जाता है वैसे ही कर्मों का आवरण हट जाने पर केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हो जाता है । उस समय वह तीर्थंकर, केवली अथवा सामान्य केवली होकर अपनी आयु पर्यन्त ( उत्कृष्ट रूप से कुछ कम पूर्व कोटि काल तक ) विहार करते हैं । जब आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को स्थिति आयुकर्म के बराबर अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है, तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग को त्यागकर तथा सूक्ष्मकाय योग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान करते हैं । इसके बाद समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति नामक चतुर्थ और अन्तिम शुक्लध्यान में श्वासोच्छ्वास का संचार, समस्त मनोयोग, वचनयोग, काययोग और समस्त प्रदेशों का हलन चलन आदि क्रिया रुक जाती है । योगों के द्वारा होने वाली आत्म प्रदेश परिस्पन्द रूप क्रिया का उच्छेद हो जाने से इस चतुर्थ ध्यान का उक्त नामकरण है । इसके होने पर समस्त कर्मबन्ध के आश्रव का निरोध हो जाता है और समस्त बचे हुए कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । अतः मोक्ष के साक्षात् कारण यथाख्यात चारित्र दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं | और वे अयोग- केवली जिन उस समय ध्यानातिशय रूप अग्नि के द्वारा सब प्रकार के कर्ममल जलाकर किटु-कालिमा से रहित शुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल आत्मा को प्राप्तकर परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं । शुक्लध्यान के उपर्युक्त चार भेदों में उनमें श्रुतज्ञान का आलम्बन रहता है । उनमें किसी भी सहारे व आलम्बन की अपेक्षा नहीं रहती । प्रथम दो भेद सालम्बन हैं अर्थात् किन्तु शेष दो ध्यान निरावलम्ब है, सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक ज्ञानी जनों को ध्यान करने से पूर्व ध्यान के साधक, साधन, साध्य और फल इन चारों बातों का विधिपूर्वक ज्ञान कर लेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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