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उत्तरगुण : २०९ योगों की संक्रान्ति या परिवर्तन । अर्थात् जीवादि पदार्थों, व्यञ्जन (शब्द या वचन) और मन, वचन तथा काय रूप योग का संक्रमण (परिवर्तन) को वीचार कहते हैं। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण को इस तरह समझ सकते हैं कि ध्यान करते समय द्रव्य को छोड़कर पर्याय का ध्यान करना और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान करना (ध्यान के विषय बदलना) अर्थसंक्रान्ति है। श्रुत के किसी एक वाक्य को छोड़कर दूसरे वाक्य का सहारा लेना, उसे भी छोड़कर तीसरे वाक्य का सहारा लेना अर्थात् ध्यान करते समय वचन के बदलने को व्यञ्जन-संक्रान्ति कहते हैं । काययोग को छोड़कर अन्य योग का ग्रहण करना, उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योगसंक्रान्ति है । इन तीनों प्रकार की संक्रान्ति को वीचार कहते हैं।'
इस तरह पृथक्त्व अर्थात् भेद रूप से वितर्क अर्थात् श्रत का वीचार (संक्रान्ति) जिस ध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है । यह ध्यान उपशांत (मोह)-कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों को होता है।
(२) एकत्ववितर्क अवीचार-यह ध्यान व्यञ्जन और योग के संक्रमण से रहित वस्तु के किसी एक रूप को ही ध्येय बनाने वाला होता है। किसी एक अर्थ, गण या पर्याय का आश्रय लेकर चिन्तन करना एकत्ववितर्क अविचार है । शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क वीचार में भेद प्रधान चितन के बाद अभेद प्रधान चिंतन में स्वतः ही स्थिरता आ जाती है । और जब चित्त की स्थिरता बढ़कर एक ही पर्याय पर टिक जाती है, तब यही ध्यान एकत्ववितर्क अवीचार कहलाने लगता है । यह ध्यान क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों को होता है ।
(३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति-केवलज्ञान स्वभाव वाले सयोगीजिन जब सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर जो ध्यान करते हैं वह सक्ष्म क्रियाप्रतिपाति है। इसमें श्वासोच्छवास क्रिया भी सूक्ष्म रह जाती है तथा इसकी प्राप्ति के बाद योगी अपने ध्यान से कभी गिरते नहीं हैं अतः इसे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति कहते हैं। इस तरह जब मनोयोग और वचनयोग का निरोध हो जाता है और काययोग की श्वासोच्छवास रूप सुक्ष्म क्रिया शेष रह जाती है। इससे पतन भी १. तत्त्वार्थसूत्र (पं० कैलाशचंद्र शास्त्री द्वारा सम्पादित) ९।४४ पृष्ठ २२३. २. उवसंतो दु पुहृत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं-मूलाचार ५।२०७. ३. खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं-मूलाचार ५।२०७. ४. कात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४८४.
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