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________________ २०८: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन शुचिगुण है । आत्मा के इस शुचिगुण के सम्बन्ध से जो ध्यान होता है वह शुक्लध्यान है । जैसे सम्पूर्ण मैल दूर हो जाने पर वस्त्र शुचि हो जाता है। वैसे ही निर्मल गुणयुक्त आत्मपरिणति भी शुक्ल ध्यान मानी जाती है । जिसमें अतिविशुद्ध गुण होते हैं, कर्मों का उपशम तथा क्षय होता है और शुक्ल लेश्या होती है वह शुक्लध्यान है ।' इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो निष्क्रिय, इन्द्रियातीत और 'मैं इसका ध्यान करूँ'-इस प्रकार के विकल्प से रहित है, जो अपने स्वरूप के ही सन्मुख है-इस प्रकार आत्मा के शुचि गुण के सम्बन्ध से वह ध्यान शुक्लध्यान कहा जाता है । वस्तुतः जब क्षपक धर्मध्यान को पूर्ण कर लेता है तब वह अति विशुद्ध लेश्या के साथ शुक्लध्यान को ध्याता है । क्योंकि परिणामों की पंक्ति उत्तरोत्तर निर्मलता को लिए हुए स्थित है अतः वह क्रम से ही होती है । जिसने पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखा वह दूसरी सीढ़ी पर नहीं चढ़ सकता। अतः धर्मध्यान में परिपूर्ण हुआ अप्रमतसंयमी शुक्लध्यान करने में समर्थ होता है । धर्मध्यान कषायसहित जीवों को और शुक्लध्यान उपशान्त व क्षीणकषाय जीवों को होता है । धर्मध्यान शुक्लध्यान का कारण है। वैसे ये दोनों ही ध्यान शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण संसार भ्रमण के मूलोच्छेद में हेतुभूत हैं । स्थानांग में शुक्लध्यान के चार लक्षण निर्दिष्ट हैं-(१) अव्यथ-क्षोभ का अभाव, (२) असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव (३) विवेकशरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान तथा (४) व्युत्सर्ग-शरीर और उपधि में अनासक्त भाव ।३ भेद-शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं : १. पृथक्त्ववितर्क वीचार, २. एकत्ववितर्क अवीचार, ३. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति तथा ४. समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति (व्युपरत क्रियानिवत्ति)। (१) पृथक्त्ववितर्क वीचार-वस्तु के द्रव्य, गुण और पर्याय का परिवर्तन करते हुए चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क वीचार है। यहाँ पृथक्त्व का अर्थ भेद या नानाविधत्व है। वितर्क का अर्थ श्रुत तथा वीचार से तात्पर्य अर्थ, व्यंजन और १. जत्थ गुणा सुविसुद्धा, उवसम खमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुक्का, तं सुक्क भण्णदे ज्झाणं ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४८१. २. भगवती आराधना गाथा १८७६, विजयोदया टीका सहित. ३. ठाणं ४।७० पृष्ठ ३११. ४. तत्त्वार्थसूत्र ९।३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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