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उत्तरगुण : २०७ ३. वियाकविचय-जीवों को एक और अनेक भवों तक पुण्यकर्म और पापकर्म क्रमशः सुख और दुःख रूप फल देते हैं। अत: इनके उदय, उदीरणा (अपक्व पाचन), संक्रम (कर्म का पर प्रकृति रूप बनना संक्रमण है), बंध, और मोक्ष-इन सबका स्वरूप चिन्तन करना विपाकविचय है।' अर्थात् कर्मों की विचित्रता, उनके क्षण-क्षण में उदित होने की प्रक्रियाओं आदि के विषय में चिन्तन करना विपाकविचय है। यहाँ विपाक शब्द कर्मों के शुभाशुभ फल का वाचक है।
४. संस्थानविचय-ऊर्चलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक-इन तीन लोकों का स्वभाव, पर्यायभेद, संस्थान (आकार-प्रकार) दशा, स्वरूप आदि तथा अनित्य, अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना संस्थान-विचय धर्मध्यान है । अनुप्रेक्षाओं में जब बार-बार चिन्तनधारा चलती रहती है तब वे ज्ञानरूप है किन्तु जब उनमें एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है तब वे ध्यान कहलाती हैं।
परिवर्ती साहित्य में संस्थान विचय नामक चतुर्थ धर्मध्यान के भी चार भेद हैं ।। १. पिण्डस्थ-पिण्ड अर्थात् शरीर स्थित आत्मा का चिन्तन करना अथवा पिण्ड के आलम्बन से होनेवाली एकाग्रता पिण्डस्थ ध्यान है । (२) पदस्थ-पद (शब्द) अर्थात् पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता पदस्थ ध्यान हैं । (३) रूपस्थ-रूप अर्थात् आकार के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता रूपस्थ ध्यान है। इसमें अरहंत आदि का ध्यान करना चाहिए । (४) रूपातीत-यह निरालम्बन स्वरूप है ।
गुणस्थानों की दृष्टि से यह धर्मध्यान चतुर्थ अविरत, पंचम देशविरत छठे प्रमत्तसंयत और सप्तम अप्रमत्तसंयत-इन चार गुणस्थानवी जीवों के सम्भव है। अर्थात् चतुर्थ से सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव इस धर्मध्यान के अधिकारी (स्वामी) हैं।
(२) शुक्लध्यान-जिसमें शुचि गुण का सम्बन्ध हो उसे शुक्ल कहते हैं । संयम, साधना और ध्यान के प्रसंग में कषायों के उपशम या क्षय होने का नाम
१. मूलाचार ५।२०४. २. वही ५।२०५. ३. ज्ञानार्णव पृ० ३६१. ४. शुचिगुणयोगाच्छक्लम्-सर्वार्थसिद्धि ९।२८।८७४.
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