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२०६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
जाता है । शिवार्य ने इस सम्बन्ध में कहा है कि' ध्यान करने के इच्छुक क्षपक के लिए यह लोक आलम्बनों से भरा हुआ है । वह मन को जिस ओर लगाता है वही आलम्बन बन जाता है ।
धर्मध्यान के मुख्य चार आलम्बन माने गये हैं-(१) वाचना, (२) पच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा । शिवार्य ने सभी (बारह) अनुप्रेक्षाओं को धर्मध्यान के अनुकूल आलम्बन माना है। जबकि स्थानांग सूत्र में एकत्व, अनित्य, अशरण और संसार-ये चार धर्मयान की अनुप्रेक्षायें मानीं है ।
भेद : धर्मध्यान के चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय-ये चारों धर्मध्यान के ध्येय भी हैं। इनकी विचारणा (चिन्तनधारा) के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है ।" विचय, विवेक और विचारणा ये सभी एकार्थक है ।
१. आज्ञाविचय-पाँच अस्तिकाय (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश), षट्जीवनिकाय (पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस) तथा काल द्रव्यये सब सर्वज्ञदेव द्वारा प्रतिपादित होने से आज्ञाग्राह्य पदार्थ हैं । अतः निःशंक भाव से इनका श्रद्धान एवं चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है ।
२. अपायविचय-जो जीव मोक्ष के इच्छुक होते हुए भी मिथ्यात्व के कारण चारों गतियों के दुःख भोग रहे हैं उनके विषय में यह विचार करना कि ये मिथ्यात्व से कैसे छूटे-'अपायविचय है । अथवा कल्याण प्राप्ति के साधनभूत रत्नत्रय का जैनागमों के आश्रय से अध्ययनपूर्वक ध्यान करना भी अपायविचय है।"
१. आलंबणेहिं भरिदो लोगो झाइदुमणस्स खवयस्स ।
जं जं मणसा पिच्छदि तं तं आलंबणं हवइ ॥ भगवती आराधना १८७६. २. वही गाथा १७१०, १८७५, ठाणं ४।६७ पृ० ३१०, ३११. ३. धम्मस्स तेण अपिरुद्धाओ सव्वाणुतेहाओ--भगवती आराधना १७१०,
१८७५. ४. ठाणं ४१६८ पृ० ३११. ५. एयग्गेण मणं णिरंभिऊण धम्मं चउम्विहं झाहि ।
आणापायविवायविचओ य संठाणविचयं च ॥ मूलाचार ५।२०१. ६. मूलाचार ५।२०२, भ० आ० १७११. ७. मूलाचारवृत्ति ५।२०३.
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