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२०४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
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कषाय सहित होने से यह अप्रशस्त माना जाता है । इसमें कामाशंसा और भोगशंसा का प्राधान्य होता है । स्थानांग तथा भगवतीसूत्र में आर्तध्यान वाले पुरुष के चार लक्षण बतलाये हैं । क्रन्दनता — रोना, चिल्लाना, २ शोचनताशोक, तथा चिन्ता आदि करना, ३ तेपनता ( तिप्पणता ) - आँसू बहाना तथा ४ परिदेवनता--आघात पहुँचाने वाला शोक, विलाप, घोर उदासी, विह्वलता आदि करना । "
आर्तध्यान के चार भेद हैं । १ अमनोज्ञ योग--ज्वर, शूल, शत्रु, रोग आदि का संयोग हो जाने पर 'इनसे संबंध विच्छेद कैसे और कब होगा ? इस प्रकार चिन्ता करना । इष्टवियोग- स्त्री, पुत्र, पौत्र, माता-पिता आदि इष्ट जनों का वियोग होने पर उनकी प्राप्ति की निरन्तर चिन्ता करना । ३ परीषह - क्षुधा, तृषा आदि परीषह रूप बाधाओं के होने पर 'ये कब दूर होंगी ? इस प्रकार का चिन्तन करना । अन्य ग्रन्थों में आर्तध्यान के इसी तृतीय भेद को वेदना नाम से अभिहित किया है । ४ निदानकरण-- भोगों की आकांक्षा के प्रति आतुर हुए व्यक्ति को आगामी विषयों की प्राप्ति के लिए मनःप्रणिधान का होना अर्थात् उनका संकल्प और निरन्तर चिन्ता करना ।
आर्तध्यान प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवों के हो सकता है । छठे गुणस्थान में मात्र निदान आर्तध्यान नहीं है । बाकी के तीन आर्तध्यान प्रमाद के उद्रेक से कदाचित् हो सकते हैं ।
(२) रौद्रध्यान - यह कषाय सहित होता है अतः यह भी अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत है । इसमें क्रूरता का प्राधान्य होता है । अतः हिंसक एवं क्रूर आदि भावों से युक्त स्व और पर के घात का निरन्तर चिन्तन करना रौद्रध्यान है । मूलाचार में इसके स्तैन्य, मृषा, सारक्षण और षड्विध आरम्भ ( हिंसा-क्रिया) - ये चार भेद किये हैं । इन भेदों के आधार पर कहा जा सकता है कि परधनहरण, असत्यवचन, विषय-भोग सामग्री के संरक्षण तथा पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस - इन षट्कायिक जीवों के छेदन, भेदन, बन्धन, ताडन इत्यादि
१. ठाणं ४।६२ पृष्ठ ३०९, भगवई २५/७ सूत्र ६०२ ( अंगसुत्ताणि भाग २. पृ० ९७४.)
२. अमणुण्णजोगइट्ठ विओग परीसहणिकरणेसु 1
अट्टं कसाय सहियं झाणं भणिदं समासेण ॥ मूलाचार ५।१९८ वृत्ति सहित. ३. वेदनायाश्च-~~-तत्त्वार्थसूत्र ९।३३.
४. सर्वार्थसिद्धि ९ । ३४।८८६ पृष्ठ ३४३.
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