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________________ उत्तरगुण : २०३. चिन्तन विविध विषयों पर सतत् चलता ही रहता है पर उसे हम ध्यान नहीं कह सकते । किन्तु यदि वह चिन्तन यहाँ-वहाँ से हटकर जितने समय के लिए एकाग्र या एक विषय पर स्थिर होगा, उसे उतने समय का ध्यान कहा जा सकता है। ध्यान तप के माध्यम से साधक चित्त की चंचलता रोककर एकाग्रता द्वारा आत्मिक शक्ति का विकास करता हुआ मुक्ति पथ की ओर प्रयाण करता है । हेमचंद्राचार्य ने कहा है कि मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है। कर्मों का क्षय आत्मज्ञान से होता है। आत्मज्ञान आत्मध्यान से होता है अतः आत्मध्यान ही आत्मा के हित का साधक है ।' पर कर्मों का क्षय करने वाली वह ध्यान रूपी अग्नि राग, द्वेष, मोह तथा मन, वचन और काय रूप योगवृत्ति से रहित अवस्था में प्रगट होती है ।२ __भगवती आराधना में ध्यान की सामग्री (परिकर) के विषय में कहा है कि बाह्य द्रव्य को देखने की ओर से आँखों को किञ्चित् हटाकर अर्थात् नासिका के। अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिरकर एक विषयक परोक्षज्ञान में चैतन्य क रोककर शुद्ध चिद्रूप अपने आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करे । यह ध्यान संसार से छूटने के लिए किया जाता है। विजयोदया टीका में कहा है कि दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में स्थापित करके किसी एक परोक्ष वस्तुविषयक ज्ञान में मन को लगाकर श्रुत से जाने हुए विषयों का स्मरण करते हुए आत्मा में लीन होना चाहिए । भेद-ध्यान के अप्रशस्त और प्रशस्त--ये दो मुख्य भेद हैं। इनमें आतंध्यान और रौद्र ध्यान--ये दो अप्रशस्त ध्यान हैं तथा धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान--ये दो प्रशस्त ध्यान हैं । इस प्रकार ध्यान के चार भेद हैं।" अप्रशस्त ध्यान (१) आतंध्यान--आर्तशब्द ऋत या अर्दनं अतिः से बना है। ऋत का अर्थ दुःख, अति का अर्थ पीड़ा है । अतः इनसे होने वाला ध्यान आर्तध्यान है ।" १. मोक्षः कर्मक्षयादेव । स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च तद् ध्यानं हितमात्मनः ।। योगशास्त्र ४।११३. २. पंचास्तिकाय १४६. ३. भगवती आराधना विजयोदया सहित गाथा १७०६. ४. अट्टं च रुद्दसहियं दोण्णि वि झाणाणि अप्पसत्थाणि । धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थ झाणाणि याणि ।। मूलाचार ५।१९७. ५. ऋतं दुःखम्, अर्दनमतिर्वा तत्र भवमार्तम् --सर्वार्थसिद्धि ९।२८।८७४ पृ० ३४१, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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