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________________ २०२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चिन्तन । एक विषय में चिन्तन का स्थिर करना ध्यान है ।' तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ।२ आचार्य उमास्वामी ने अपनी इस परिभाषा में ध्याता, ध्यान और ध्यान का समय-इन तीन विषयों का निर्देश किया है । अर्थात् वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन उत्तम संहननधारी पुरुष ध्याता हो सकते हैं । एक पदार्थ को लेकर उसी में चित्त को स्थिर कर देना ध्यान है । अतः उत्तमसंहनन अर्थात् अतिशय वीर्य से विशिष्ट शारीरिक संघटन वाले आत्मा को जो एक दस्तुनिष्ठ ध्यान होता है वही प्रशस्त ध्यान है । जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं तब वह विचार ज्ञान कहलाता है और जब वह ज्ञान एक विषय में स्थिर हो जाता है तब उसे ही ध्यान कहते हैं । उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है । मुहूर्त ४८ मिनिट का होता है । तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि गमन, भोजन, शयन, और अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटकने वाली चित्तवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध है । जिस प्रकार वायु रहित प्रदेश में दीपशिखा अपरिस्पन्द अर्थात् स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल देश में एक लक्ष्य में बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति (चिन्ता या अन्त:करण व्यापार) बिना व्याक्षेप के वहीं स्थिर रहती है। इस निश्चल दीपशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है । तथा ज्ञान व्यग्न होता है और ध्यान एकाग्र । एकान से तात्पर्य है ध्यान अनेक मुखी न होकर एकमुखी (एक लक्ष्य में स्थिर) रहता है और उस एक मुख में ही संक्रम होता रहता है । क्योंकि ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओं से पूर्ण निवृत्ति होती है । ध्यान शतक में चेतना के चल और स्थिर-ये दो भेद करके चल-चेतना को चित् और स्थिर-चेतना को ध्यान कहा है ।" आगे कहा है कि चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में प्रवृत्त होता रहता है, उसे अन्य वस्तुओं या विषयों से निवृत्त कर एक वस्तु या विषय में प्रवृत्त करना ध्यान है । अपराजितसूरि ने भी एक पदार्थ में ज्ञान-सन्तति के निरोध को ध्यान कहा है। वस्तुतः हमारा १. एकाग्रचिन्ता निरोवो ध्यानमिति-मूलाचार वृत्ति ५।१९७. २. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्-तत्त्वार्थसूत्र ९।२७. ३. तत्त्वार्थ सूत्र ९।२७ (सं० पं० कैलाशचंद शास्त्री) पृष्ठ २१८. ४. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२७।५-२२ पृष्ठ ६२६-६२७. तथा ७९०. ५. जं थिरमज्झवसाणं, झाणं जं चलं तयं चित्तं-ध्यानशतक गाथा २. ६. वही गाथा ३. ७. एकस्मिन्प्रमेये निरुद्धज्ञानसंततिानम्-भ० अ० विजयोदया टीका २३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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