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उत्तरगुण : २०१
और वह स्थान शुद्ध न
कलेवर के होने पर, जब तक कि उसका परिष्ठापन हो जाए तब तक स्वाध्याय वर्जनीय है।
इस प्रकार स्वाध्याय तप के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव--इन चारों विशुद्धियों का होना आवश्यक है । धवला में कहा है कि इन विशुद्धियों के बिना सूत्र और अर्थ की शिक्षा ग्रहण के लोभ से किया गया स्वाध्याय सम्यक्त्व को विराधना रूप असमाधि, अस्वाध्याय, अलाभ, कलह, व्याधि और वियोग-इन अनिष्टों का करने वाला होता है। अन्य सभी तपों के मध्य अपनी विविध विशेषताओं के कारण स्वाध्याय तप का अपना विशेष महत्त्व है। कहा भी है कि सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट बारह प्रकार के आभ्यन्तर और बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान न तो कोई तपःकर्म है और न होगा । ३ क्योंकि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय तप करने वाला श्रमण पाँचों इन्द्रिय-विषयों से सवत, तीन गुप्तियों से गुप्त और एकाग्रमन हो जाता है। पं० आशाधर ने कहा है कि स्वाध्याय से मुमुक्ष की तर्कणाशील बुद्धि का उत्कर्ष होता है। परमागम की स्थिति (परम्परा) का पोषण होता है । मन, इन्द्रियाँ और चार संज्ञाओं (आहार, निद्रा, भय और मैथुन) की अभिलाषा का निरोध होता है । संशय का छेदन और क्रोधादि कषायों का भेदन होता है। संवेग तथा तप में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। समस्त अतिचार दूर और परिणाम प्रशस्त होते हैं। अन्यवादियों का भय नहीं रहता तथा जिनशासन की प्रभावना करने में मुमुक्षु समर्थ होता है ।
५. ध्यान (झाण) तप : __'ध्यै चिन्तायाम्' धातु से ध्यान शब्द बना है तथा जिसका अर्थ होता है
१. स्थानांगसूत्र १०।२१. (ठाणं १०।२१ टिप्पण पृष्ठ ९०६ तया पृष्ठ ९६६
९६८) २. धवला ९।४,१, ५४।११९ पृष्ठ २५९. ३. बारसविधम्हि वि तवे सब्भंतर बाहिरे कुसलदिह्र ।
णवि अत्थि ण वि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ मूलाचार ५।२१२, १०।७९, तथा भगवती आराधना गाथा १०७, बृहत्कल्पभाष्य ११६९,
अनगार धर्मामृत टीका ९।४. ४. भगवतो आराधना गाथा १०४. ५. अनगार धर्मामृत ७।८९.
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