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________________ २०० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन __स्थानांगसूत्र में भी अन्तरिक्ष संबंधी अस्वाध्याय के दस प्रकार बतलाये हैं--१. उल्कापात, २. दिग्दाह, ३. गर्जन, ४. विद्युत् (बिजली चमकना), ५. निर्धात अर्थात् बादलों से आच्छादित या अनाच्छादित आकाश में व्यन्तरकृत महान् गर्जन की ध्वनि अथवा प्रचण्ड शब्द युक्त वायु, ६. यूपक-चन्द्रप्रभा और सन्ध्या प्रभा का मिश्रण, ७. यक्षादीप्त-किसी एक दिशा में कभी-कभी दिखाई देने वाला विद्युत् जैसा प्रकाश, ८. धूमिका--धूमवर्ण की तरह कुहासा जैसा फैलना, ९. महिका-तुषारापात और १०. रज उद्घात अर्थात् स्वाभाविक रूप में चारों ओर से धूल गिरना। __मूलाचार में स्वाध्याय के निमित्त दिग्विभाग आदि पूर्व आदि दिशाओं की शुद्धि के लिए बताया है कि पूर्वाल के समय प्रत्येक दिशा में ९-९ गाथा परिमाण, अपराह्न में ७-७ गाथा परिमाण तथा प्रदोषकाल (रात्रि का प्रथम प्रहर) में ५-५ गाथा परिमाण कायोत्सर्ग पूर्वक जाप्य करना चाहिए ।२।। ____ जैसा कि पूर्व में कहा गया कि स्वाध्याय में काल, द्रव्य, क्षेत्र और भावये चार शुद्धियाँ होना चाहिए । कालशुद्धि के वर्णन के बाद द्रव्य शुद्धि और क्षेत्र शुद्धि के विषय में वट्टकेर ने कहा है कि चारों दिशाओं में यदि सौ हाथ प्रमाण दूर तक रक्त, मांस आदि अपवित्र पदार्थ दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । इसका तात्पर्य स्पष्ट है कि स्वाध्याय काल में उस स्थान से सौ हाथ प्रमाण तक की भूमि शुद्ध रहना अपेक्षित है। भावशुद्धि की दृष्टि से स्वाध्याय के समय अपने और दूसरों के मन में संक्लेश परिणाम नहीं होना चाहिए । .. स्थानांग सूत्र में औदारिक अस्वाध्याय सम्बन्धी निम्नलिखित दस प्रकारों का उल्लेख है--१. अस्थि, मांस, ३. रक्त, ४. अशुचि सामन्त अर्थात् रक्त' मूत्र और मल की गन्ध आती हो और वे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हों तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, ५. श्मशान सामन्त-शवस्थान के समीप अस्वाध्यायिक होता है, ६. चन्द्रग्रहण, ७. सूर्यग्रहण, ८. पतन अर्थात् राजा, अमात्य, सेनापति, ग्रामभोगिक आदि विशिष्ट व्यक्तियों का मरण, ९. राज-व्युद्ग्रह या राज विप्लव अर्थात् राजा आदि के परस्पर विग्रह हो जाने पर जब तक कि वह विग्रह उपशान्त नहीं हो जाता तथा १०. उपाश्रय के भीतर सौ हाथ तक कोई औदारिक १. स्थानांग १०।२०. [ठाणं १०।२० पृष्ठ ९०६ तथा पृष्ठ ९६६ के टिप्पण] २. णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए । पुन्वह्न अवरह्ने पदोसकाले य सज्झाए ॥ मूलाचार ५७६ वृत्तिसहित. ___३. रुहिरादिपूयमंसं दवे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं । कोषादिसंकिलेसो भावविसोही पढणकाले । वही ५।७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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