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१९८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
धर्मकथा नामक स्वाध्याय हैं ।" तत्वार्थसूत्र में स्वाध्याय तप के इन पाँच भेदों का क्रम और नाम इस प्रकार है -- वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश |
स्वाध्याय में काल शुद्धि आदि का महत्त्व:-- स्वाध्याय तप में काल, द्रव्य, क्षेत्र, और भाव - इन चार शुद्धियों का विशेष महत्व है । इनकी शुद्धि के बिना स्वाध्याय करने में अनेक दोष है । सर्वप्रथम कालशुद्धि का वर्णन प्रस्तुत है -
कालाचार के चार भेद माने गये हैं-- १. रात्रि का पूर्व भाग, २. दिन का पश्चिम भाग – ये दो प्रादोषिक काल तथा ३. वैरात्रिक काल अर्थात् रात्रि का पश्चिम भाग एवं ४. गोसर्गिक काल अर्थात् मध्याह्न के दो घड़ी पूर्व का काल (पूर्वाह्न काल ) - - इस तरह इन चार कालों में से दिन का पूर्व और अपर काल तथा रात्रि का पूर्व और अपर काल अभीक्ष्ण स्वाध्याय के योग्य है
स्वाध्याय का प्रारंभ काल ( सूर्योदय के बाद) जंघाच्छाया अर्थात् सात पद (विलस्त ) है तथा समाप्ति काल अपराह्न (सूर्यास्त ) काल में जंघाच्छाया ( सात विलस्त ) शेष रहने तक है । आषाढ़ मास में पूर्वाह्न के समय दो पद-प्रमाण जंघाच्छाया तथा पौष मास में मध्याह्न के प्रारम्भ में चार पदप्रमाण जंघाच्छाया रहने पर स्वाध्याय समाप्ति का काल है । क्योंकि आषाढ़ मास के अन्तिम दिन से प्रत्येक महीने दो-दो अंगुल छाया बढ़ते-बढ़ते पौष मास तक चार पदप्रमाण हो जाती है और उधर पौष मास से लेकर प्रत्येक महीने क्रमशः दो-दो अंगुल छाया कम होते हुए आषाढ़ मास के अन्तिम दिन में दो पद प्रमाण रह जाती है | "
स्थानांग सूत्र में कहा है कि निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को निम्न चार सन्ध्याओं में आगम का स्वाध्याय नहीं करना चाहिये - १. प्रथमसन्ध्या - पूर्वोदय से पूर्व, २. पश्चिम सन्ध्या - सूर्यास्त के पश्चात्, ३. मध्याह्न सन्ध्या तथा ४ अर्धरात्रि सन्ध्या ।
निम्नलिखित सन्ध्याओं में स्वाध्याय करना चाहिए - १. पूर्वाह्न - दिन के प्रथम प्रहर में, २. अपराह्न - दिन के अन्तिम प्रहर में, ३. प्रदोष -रात्रि के प्रथम प्रहर में, ४. प्रत्यूष - रात्रि के अन्तिम प्रहर में ।
१. मूलाचारवृत्ति ५ । १९५.
२. वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः -- तत्वार्थ सूत्र ९।२५.
३. मूलाचार ५।७३.
४. मुलाचार ५७४.
५. वही ५।७५.
६-७. स्थानांग ( ठाणं ) चतुर्थ स्थान, पद २५७-२५८ पृ० ३५४.
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