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________________ उत्तरगुण : १९७ इस प्रकार आत्महितकारी शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन-अध्यापन, श्रवण, मनन और चिंतन को स्वाध्याय कहा जाता है। शिवार्य ने कहा है कि जिनवचन रूप शिक्षा के अभ्यास से आत्महित का ज्ञान, नवीन-नवीन संवेग, रत्नत्रय में निश्चलता, स्वाध्याय तप, भावना तथा परोपदेश की क्षमता-इन गुणों की प्राप्ति होती है। अकलंकदेव ने स्वाध्याय के आठ लाभ और उद्देश्य बताये हैप्रज्ञातिशय, प्रशस्त अध्यवसाय, प्रवचन स्थिति, संशयोच्छेद, परवादियों की शंका का अभाव, परमसंवेग, तपोवृद्धि और अतिचार शुद्धि-इन सब गुणों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्वाध्याय आवश्यक है ।२ स्वाध्याय ज्ञानावरणकर्म का क्षय करने वाला तथा सब भावों को प्रकाशित करने वाला होता है । इसे करने वाला श्रमण पंचेंद्रियों का संवर, मन, वचन तथा काय इन तीन गुप्तियों का पालन करता है । आगम और गुरु (आचार्य) के प्रति विनयी रहता हुआ अपने चित्त को स्वाध्याय द्वारा एकाग्र करता है । वह शास्त्र-स्वाध्याय के अनुकूल आत्मस्वरूप का मनन करता है और अपने प्रकाशमय स्वरूप को जानकर सारे जगत् में प्रकाश बाँटता है क्योंकि स्वाध्याय तो ज्ञान रूपी सर्य को प्रकाशित करने का साधन है जिसे अज्ञान के मेघों ने ढक रखा है। भेद :-स्वाध्याय के पाँच भेद हैं : परिवर्तना (आम्नाय), वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा । १. पठित ग्रन्थों को शुद्ध उच्चारणपूर्वक बार-बार दुहराना या पढ़ना परिवर्तना है । इसे ही आम्नाय कहते हैं । २. निर्दोष ग्रन्थ, अर्थ और दोनों का प्रदान करना या प्रतिपादन करना वाचना है। ३. संशय का उच्छेद करने या निर्णय की पुष्टि के लिए शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को दूसरों से पूछना पृच्छना है । ४. जाने हुए अर्थ का मन में पुनः पुनः मनन और चिंतन करना अनुप्रेक्षा है । ५. पठित, परिचित या जानी हुई वस्तु का लौकिक फल की आकांक्षा के बिना रहस्य समझना, या धर्मकथा--आदि का अनुष्ठान करना १. अदहिदपइण्णा भावसंवरो णवणवो या संवेगो । णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च ॥ भगवती आराधना १००. २. प्रज्ञातिशय प्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थः स्वाध्यायः--तत्त्वार्थवातिक ९।२५।६. ३. उत्तराध्ययन २९।१९, २६।२७. ४. सज्झायं कुव्यंतो पंचेंदियसंबुडोत्तिगुत्तो य । हवदि य एमग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खु ॥ मूलाचार ५।२१३. ५. परियट्ट णाय वायण पडिच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होई सज्झाओ ॥ मूलाचार ५।१९६, -भगवती सूत्र २५।७, तत्वार्थसूत्र ९।२५. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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