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१९६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
वस्तुतः वैयावृत्त्य के चार कारण हैं - १. समाधि पैदा करना, २ . विचिकित्सा दूर करना अर्थात् ग्लानि का निवारण करना, ३. प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना ४. सनाथता ---- निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना । शिवार्य ने भी कहा है कि वैयावृत्य करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन होता है । यही आज्ञा संयम । इससे वैयावृत्त्य करने वाले का उपकार, निर्दोष रत्नत्रय का दान तथा संयम में सहयोग होता है । विचिकित्सा - ग्लानि दूर होती है । धर्म की प्रभावना और कर्त्तव्य का निर्वाह होता है ।
उपर्युक्त कारणों से दिगम्बर परम्परा में श्रावक भी मुनियों आदि की वैयावृत्त्य करते हैं । और फिर यह भी तथ्य है कि श्रमणों का धर्म श्रावकों के आश्रित चलता है |
४ स्वाध्याय (सज्झाय) तप :
स्वाध्याय शब्द की दो निरुक्तियाँ है -- १. स्व + अध्याय । यहाँ 'स्व' से तात्पर्य आत्मा के लिए हितकारक, 'अध्याय' का अर्थ अध्ययन अर्थात् आत्मा के लिए हितकारक परमागम ( शास्त्रों) का अध्ययन स्वाध्याय है । २. सु + आ + अध्याय, यहाँ 'सु' का अर्थ सम्यक् शास्त्रों का, 'आ' अर्थात् मर्यादापूर्वक, 'अध्याय' अर्थात् अध्ययन । यहाँ सम्यक् से तात्पर्य है जल्दीजल्दी या देर से धीरे-धीरे अक्षर या पद छोड़ते हुए न पढ़ना तथा अर्थशुद्धि एवं वचन शुद्धि पूर्वक अध्ययन करना । वट्टकेर ने कहा है कि जिनोपदिष्ट बारह अंगों और चौदह पूर्वो का उपदेश करना, प्रतिपादन आदि करना स्वाध्याय है । 4 पूज्यपाद के अनुसार आलस्य का त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है । वसुनन्दि ने सिद्धान्त आदि के अध्ययन को स्वाध्याय कहा हैं । पं० आशाधर ने भी गणधर आदि के द्वारा रचित सूत्र-ग्रन्थों की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश को स्वाध्याय कहा है ।'
१. तत्त्वार्थवार्तिक, द्वितीय भाग ९।२४।१७, पृष्ठ ६२४. २. भगवती आराधना ३१० .
३. स हि स्वस्मै हितोऽध्यायः सम्यग्वाऽध्ययनं श्रुतेः:- अनगार धर्मामृत ७।८२. ४. सम्यगध्ययनं स्वाध्यायः द्रुतविलंबितादिदोषरहितत्वं अर्थव्यञ्जन शुद्धिश्च सम्यक्त्वम् — विजयोदया टीका गाथा १३९. पृष्ठ ३१९.
५. बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे - मूलाचार ७।१०.
६. ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः -- सर्वार्थसिद्धि ९।२० ८५८.
७. स्वाध्यायः सिद्धान्ताद्यध्ययनम् — मूलाचारवृत्ति ५।१६३.
८. सूत्रं गणधरायुक्तं श्रुतं तद्वाचनादयः स्वाध्यायः:- अनगार धर्मामृत ९ ४.
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