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________________ उत्तरगुण : १९५ धर्म से बहिष्कृत होता है ।' अनगार धर्मामृत में भी कहा है जो साधर्मी पर आयी विपत्तियों की उपेक्षा कर सोता रहता है अर्थात् कुछ प्रतिकार नहीं करता, वह समस्त सम्पत्ति के विषय में भी सोता है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् ने वैयावृत्त्य तप को बाह्य और आभ्यन्तर तपों का हृदय कहा है ।२ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि वैयावृत्य ता में परिभाषा या भेदों की दृष्टि से दिगम्बर तथा श्वेताम्बर--इन दोनों परम्पराओं में विशेष अन्तर नहीं है । पर दिगम्बर परम्परा में पुनियों को परस्पर में वैयावृत्त्य के विधान के साथ ही श्रावकों द्वारा भी मुनियों आदि को वेयावृत्य का विधान किया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में श्रावकों द्वारा मुनियों की वैयावृत्त्य का सर्वथा वर्जन है । मूलाचार में श्रावकों द्वारा मुनियों को वैयावृत्ति का कोई अलग से स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु प्रवचनसार के अनुसार रोगी, गुरु (पूज्य), बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्त्य के निमित्त से शुभोपयोग युक्त लौकिक जनों के साथ बातचीत निन्दित नहीं है तथा यह वैयावृत्त्य रूप प्रशस्त चर्या गृहस्थों को मुख्य तथा श्रमणों को गौण कही है। इस चर्या से गृहस्थ को परम सौख्य की प्राप्ति बताई है। वसुनन्दि श्रावकाचार में श्रमण को दान देने की नौ विधियां बतायी हैंश्रमण को पड़िगाहना, उच्चासन देना, पैर धोना, पूजा-प्रणाम करना, स्तुति करना तथा मन, वचन, काय और आहार की शुद्धता रखना । रयणसार में भी कहा है कि शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म-इन प्रकृतियों में उस श्रमण की कौन सी प्रकृति है, कायोत्सर्ग या गमनागमन से कितना श्रम हुआ है ? शरीर में ज्वरादि पीड़ा तो नहीं है ? उपवास से कण्ठ शुष्क तो नहीं है ? इत्यादि बातों का विचार करके उसके उपचार स्वरूप साधु के लिये श्रावक को दान देना चाहिये ।" हितमित प्रासुक अन्न-पान, निर्दोष हितकारी औषधि, निराकुल-स्थान , शयनोपकरण आदि दाम योग्य वस्तुएँ हैं।६ इसी प्रकार की वैयावृत्त्य का समर्थन पद्मनदिपंचविंशतिका में भी मिलता है। १. भगवती आराधना ३०७. २. अनगार धर्मामृत ७८०. ३. वेज्जावच्चणि मित्त गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासण णिदिदा वा सुहोवजुदा ।। एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणि दा ताएव परं लहदि सोक्खं ।। प्रवचनसार २५३-२५४. ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, २२५. ५. रयणसार २३-२४. ६. मूलांचार ५। १९३. ७. पद्मनंदि पंचविंशतिका, ८-९-१०. Jain Education International Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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