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१९४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन दो के स्थान पर साधु और मनोज्ञ--इन दो भेदों का उल्लेख है ।' अकलंकदेव का यह भी कथन है कि यद्यपि दस प्रकार के वैयावृत्त्य न कहकर मात्र संघवैयावृत्त्य या गणवैयावृत्त्य-इस संक्षिप्त कथन से भी कार्य चल सकता था किन्तु वैयावृत्त्य के योग्य अनेक पात्रों का निर्देश इसलिए किया कि इनमें से किसी की प्रवृत्ति हो सकती है तथा करनी चाहिए। अतः आचार्यादि जब कभी व्याधि, परीषह, मिथ्यात्व आदि से ग्रस्त हों तब उन्हें प्रासुक औषधि, आहार-पान, वसति, पीठासन, संस्तरण आदि धर्मोपकरण उपलब्ध करना, उन्हें सम्यक्त्व में पुनः दृढ़ करना वैयावृत्त्य है । बाह्य द्रव्यों की प्राप्ति के अभाव में अपने हाथ से कफ, श्लेष्म आदि भीतरी मलों को साफ करना और उनके अनुकूल अनुष्ठान या कार्य करना वैयावृत्त्य है ।
श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहार भाष्य में प्रत्येक वैयावृत्त्य के तेरह-तेरह द्वार बताये हैं-१. भोजन, २. पानी, ३. संस्तारक और ४. आसन-इन्हें लाकर देना। ५. क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना। ६. पाद प्रमार्जन करना अथवा औषधि देना । ७. आँख का रोग उत्पन्न होने पर औषधि लाकर देना । ८. मार्ग में विहार करते समय उनका भार लेना तथा मर्दन आदि करना । ९. राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश का निस्तार करना । १०. शरीर को हानि पहुँचाने वालों से और चोरों से संरक्षण करना। ११. बाहर से आने पर उनके धर्मोपकरण ग्रहण करना । १२. ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना तथा १३. उच्चार, प्रश्रवण, और श्लेष्म आदि होने पर इनके सम्बन्ध में यथायोग्य व्यवस्था करना ।
वैयावृत्त्य को इसलिए तप कहा क्योंकि ग्लान भाव से किसी की सेवा करना कम तपश्चरण नहीं है। इससे परस्पर का आचार सधता है । अतः संयम-यात्रा में आये विघ्नों के उपशमन को सेवा आदि द्वारा सहयोग देना प्रत्येक का कर्तव्य है। शिवार्य ने वैयावृत्य न करने वालों के विषय में कहा है कि अपने बल
और वीर्य को न छिपाने वाला जो मुनि समर्थ होते हुए भी जिन भगवान् के द्वारा कहे हुए क्रम के अनुसार वैयावृत्त्य नहीं करता है तो वह निर्धर्म अर्थात्
१. आचार्योपाध्यायतपस्विशक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम् ।
-तत्त्वार्थवार्तिक ९।२४ पृ० ६२३. २. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२४।१८ पृष्ठ ६२४. ३. वही, पृष्ठ ६२३. ४. व्यवहार भाष्य १०।१२३-१३३. . . .
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