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उत्तरगुण : १९३ वैयावृत्त्य के पात्र श्रमणों में गुणाधिक मुनि, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल मुनि, चतुर्विध संघ, गण, कुल तथा समनोज्ञ (उपद्रव-रहित सुखासीन रहने वाले) मुनियों की आपत्ति आदि के समय वैयावृत्त्य करनी चाहिए।' जो मुनि मार्ग के श्रम से थक गये हों उन्हें वैयावृत्त्य द्वारा उचित रीति से आराम पहुँचाना, जिन्हें रास्ते आदि में चोरों ने सताया हो, सिंह-व्याघ्रादि जंगली जानवरों से, दुष्ट राजा से, नदी के द्वारा बाधा उत्पन्न होने से, तथा महामारी जैसे रोग और दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित होने पर उनका संग्रह करके अनुकूल स्थान में लाना, संरक्षण आदि करना वैयावृत्त्य तप है ।२ वैयावृत्त्य आदि में कुशल श्रमण को "प्रज्ञा-श्रमण" कहा गया है। क्योंकि ऐसा श्रमण विनय तथा वैराग्य युक्त, जितेन्द्रिय और सर्वसंघ का प्रतिपालक होता है । ३ प्रवचनसार में कहा है रोग से, क्षुधा से, तुषा से अथवा श्रम से आक्रांत श्रमण को देखकर साधु को अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्त्यादि करना चाहिए । किन्तु जो श्रमण छहकाय के जीवों की विराधना सहित वैयावृत्त्यादि में प्रवृत्ति करता है वह श्रमण गृहस्थधर्म में प्रवेश करता है। अतः श्रमण को वैयावृत्त्यादि इस प्रकार करना चाहिए जिससे संयम की विराधना न हो। और जो श्रमण सदा छह काय की विराधना से रहित, चार प्रकार के श्रमण संघ का उपकार करता है वह धर्मानुराग चारित्र युक्त श्रमणों में प्रधान होता है ।
स्थानांगसूत्र में भी पात्र के भेद से वैयावृत्त्य के दस भेद बताये हैंआचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, कुल, गण, संघ और सार्मिक-इन सभी की वैयावृत्त्य करना चाहिए ।' इन सबकी अग्लान भाव अर्थात् अखिन्नता और बहुमान से की जाने वाली वैयावृत्त्य महानिर्जरा (बहुत कर्मों का क्षय करने वाली) तथा महापर्यवसान अर्थात् जन्म-मरण का अत्यन्तिक उच्छेद करने वालो होती है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी आचार्य आदि की वैयावृत्त्य के भेद से दस भेद किये हैं किन्तु स्थानांग के स्थविर और साधर्मिक इन
१. मूलाचार ५।१९३. २. अद्धाणतेण सावयरायणदीरोधगासिवे ओमे ।
वेज्जावच्चं वृत्तं संगहसारक्खणोवेदं ॥ मूलाचार ५।१९५. ३. मूलाचारवृत्ति ५।१२६. ४. प्रवचनसार गाथा २५२, २५०, २४९. ५. स्थानांग (ठाणं) स्थान १० सूत्र १७. पृष्ठ ९०५. ६. वही, स्थान ५ सूत्र ४४-४५ पृष्ठ ५५७.
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