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________________ १९६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन संघ भी आराधित होते हैं। किन्तु विनय से रहित श्रमण की सब शिक्षा निष्फल है क्योंकि शिक्षा का फल विनय है और विनय का फल सभी प्रकार के कल्याण की प्राप्ति है । आचार के क्रम तथा कल्प्य गुणों का प्रकाशन अर्थात् श्रुत और चारित्र की आराधना की सिद्धि, आत्मशुद्धि, निर्द्वन्द भाव की प्राप्ति, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति, स्वयं और दूसरों को आह्लाद प्राप्ति, कोर्ति, मित्रता, मानभंजन, गुरुजनों का बहुमान, तीथंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों की अनुमोदना-ये सब विनय के गुण है।' वही विनय जब सम्यक् आचरण में प्रतिफलित होती है तो यह तप का रूप ग्रहण कर लेती है । पंचम गति के नायक रूप विनय तप के पांचभेद हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार ।२ इन पाँचों में विनय रखना विनय तप है। शंका, कांक्षा आदि को दूर करना दर्शन विनय है। श्रुतज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना ज्ञान विनय है, जो संवर और निर्जरा का कारण है। कर्मों के ग्रहण में निमित्त क्रियाओं को रोकना चारित्र विनय है । अनशन आदि तप से होनेवाला कष्ट सहना तपविनय है । मन वचन और काय से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में अपने गुरुजनों, ज्येष्ठ साधुओं आदि में यथायोग्य आदर, आज्ञापालन, अनुकरण आदि करना उपचार विनय है। ३. वैयावृत्त्य (वेज्जावच्च) तप: यह आभ्यन्तर तप का तृतीय भेद है, जिसका अर्थ है सेवा करना, कार्य में व्यावृत होना, या धर्मसाधना में सहायक प्रासुक वस्तु, कार्य या अपनी सेवा द्वारा सभी प्रकार के साधार्मिक साधुओं का कष्ट दूर करना, उन्हें सहयोग या अनुकूलता प्रदान करना वैयावृत्त्य है । मूलाचार में कहा है कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर-इन पांचों तथा नवदीक्षित बालमुनि, वृद्ध अर्थात् वय, तप आदि गुणों में वृद्ध मुनियों से युक्त कुलों ओर गच्छों की सर्व सामर्थ्य से जैसे शय्यावकाश रूप वसतिका, निषद्या (आसनादि), उपधि, प्रतिलेखना, विशुद्ध आहार, औषधि, वाचना, विकिंचन (अशक्त मुनियों के मल का शोधन) और वंदना द्वारा श्रमणों की सेवा करना वैयावृत्त्य तप है।" १. मूलाचार ५११८८-१९१ तथा भ० आ० गाथा १२८-१३१. २. दसणणाणे विणओ चरित्ततवओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ ॥ मूलाचार ५।१६७. ३. विजयोदया टीका गाथा ३०० पृ० ५११,५१२. ४. आइरियादिसु पंचसु सबालवुढाउलेसु गच्छेसु । वेज्जावच्चं वृत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए ॥मूलाचार ५।१९२. सेज्जागासणिसेज्जो तदोवहिपडिलेहणाहि उवग्गहिदे । आहारोसहवायण विकिंचणं वंदणादीहिं ।। वही ५।१९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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