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________________ उत्तरगुण : १९१ दोषों की शुद्धि के लिए चारित्र पर्याय का सर्वथा छेदकर नई दीक्षा देना मल प्रायश्चित्त है। ९. परिहार : दोष करने वाले श्रमण को दोषानुसार पक्ष, मास आदि काल तक अपने संसर्ग से अलग कर देना तथा उससे किसी तरह का संसर्ग न रखना परिहार प्रायश्चित्त है। १०. श्रद्धान (सद्दहणा) : तत्त्व में रुचि बनाये रखना श्रद्धान है। अर्थात् सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में उन्मुख श्रमण को श्रद्धायुक्त बनाकर पुनः दीक्षित करना । अथवा मानसिक दोष के होने पर उसके परिमार्जन के लिए 'मेरा दोष मिथ्या हो'-ऐसा अभिव्यक्त करने को भी श्रद्धान प्रायश्चित्त कहते है।' ये प्रायश्चित्त के दस भेद हैं । अकलंकदेव ने कहा है-देश, काल, शक्ति और संयम आदि के अविरोध रूप से अपराध के अनुसार दोष प्रशमन हेतु इन प्रायश्चित्तों को ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि जीव के परिणाम असंख्य लोक के बराबर होते हैं तथा जितने प्राणियों के परिणाम होते हैं उतने अपराध भी होते हैं किन्तु उतने प्रकार के प्रायश्चित्त तो हो नहीं सकते । अतः व्यवहार नय की दृष्टि से उपयुक्त वर्गीकरण करके प्रायश्चित्तों का यहाँ स्थूल निर्देश किया गया है। २. विनय (विणय) तपः __ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचार रूप अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति का नाम विनय तप है । विजयोदया में कहा है 'जो अशुभ कर्म को दूर करता है, नष्ट करता है ऐसे कर्तव्य को विनय कहते हैं । अथवा जो ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों का नाश करता है तथा मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद और योग जिसके कारण हैं ऐसे संसार से जो छुड़ाता है वह विनय है। वस्तुतः विनय शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक 'नी नयने' धातु से बना है । 'विनयतीति विनयः' ऐसा करने पर 'विनयति' के दो अर्थ होते हैं-दूर करना और विशेष रूप से प्राप्त कराना। अतः जो अप्रशस्त कर्मों को दूर करती है और विशेष रूप से स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त कराती है वह विनय है।४ प्रत्येक आचारशास्त्र में विनय तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । क्योंकि विनय मोक्ष का द्वार है । इसी से ज्ञान, संयम और तप सधते हैं, आचार्य और सम्पूर्ण १. मलाचारवृत्ति ५।१६५. २. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२।१० पृष्ठ ६२२. ३. विजयोदया टीका ११२ पृष्ठ २५९. ४. अनगार धर्मामृत ७।६१ पृष्ठ ५२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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