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________________ १९० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन जब बहुत बड़ा संघ एकत्रित हो, तब दोष प्रकट करना--अर्थ किया है । दशवें तत्सेवी दोष का मूलाचार में जो अपने सदृश दोषी हैं महाप्रायश्चित्त के भय से उसी से अपने दोष कहना अर्थ किया है। जबकि षट्प्राभृत की श्रुतसागरीय टोका में इसका अर्थ-जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पुनः सेवन करना--किया है। स्थानांग वत्ति में आलोचना देने वाले जिन दोषों को स्वयं सेवन करते हैं, उनके पास उन दोषों की आलोचना करना अर्थ किया है। ___ इस प्रकार आलोचना के इन दस दोषों में से कुछ दोषों का अर्थ विभिन्न ग्रन्थकारों ने अलग-अलग ढंग से किया है। २. प्रतिक्रमण (पडिकमण) : यह प्रायश्चित्त का द्वितीय भेद है । कर्मवश या प्रमाद आदि के द्वारा कृत दोषों का शोधन करना प्रतिक्रमण है, अर्थात् कृत, कारित और अनुमोदना के द्वारा किये हुए पापों की निवृत्ति के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं-मेरा दुष्कृत (दोष) मिथ्या हो-ऐसा मानसिक पश्चाताप करना प्रतिक्रमण है । यह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि रूप है। ३. तदुभय : कुछ दोष आलोचना मात्र से शुद्ध होते हैं और कुछ प्रतिक्रमण से तथा कुछ दोनों से, यही तदुभय प्रायश्चित्त है । अर्थात् जिस दोष की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के करने से हो वह वदुभय है । ४. विवेक (विवेगो) : जिस वस्तु के त्याग से दोष की विशुद्धि हो उन संसक्त (अप्रासुक) अन्न-पान-उपकरण आदि का त्याग विवेक है। आहारादि में अकल्पनीय वस्तु आ जाए और बाद में मालूम पड़े तो उसका त्याग विवेक प्रायश्चित है। ५. व्युत्सर्ग (विउस्सग्गो) : काल का नियम करके कायोत्सर्ग अर्थात् शरीर के व्यापार रोककर एकाग्रतापूर्वक ध्येय वस्तु में उपयोग लगाना व्युत्सर्ग है । ६. तप : अनशन-अवमोदर्य आदि करना तप है। ७. छेद : दोष को लघुता या गुरुता के अनुसार उसको निवृत्ति हेतु पक्ष, मास, वर्ष आदि काल-प्रमाण की दीक्षा छेदकर कम कर देना। ८. मूल : अब तक की सम्पूर्ण दीक्षा छेद (समाप्त) कर पुनः दोक्षा देना, क्योंकि उद्गमादि दोषयुक्त आहार, उपकरण तथा वसतिका ग्रहण करने पर श्रमण मूल-स्थान को प्राप्त हो जाता है। अतः विपरीत आचरण से उत्पन्न १. भगवती आराधना गाथा २९२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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