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________________ १८८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन स्थानांग, भगवती, तथा धवला में इन दस भेदों में नवम अनवस्थाप्य (तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा) तथा दशम पारांचिक (भर्त्सना और अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा) भेद बताये हैं जबकि शेष आठ भेद मूलाचार की ही तरह है।' तत्त्वार्थसूत्र तथा इसके सभी टीका ग्रन्थों में प्रायश्चित्त के नौ भेदों का उल्लेख है-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ।२ इनमें मूल और श्रद्धान प्रायश्चित्त की गणना नहीं है । नवम उपस्थापना प्रायश्चित्त माना है, जिसका स्वरूप मूलाचार के मूल-प्रायश्चित्त के समान है । मूलाचार तथा उसकी वृत्ति में वर्णित प्रायश्चित्त के उपयुक्त दस भेदों का विवेचन क्रमशः इस प्रकार है। १. आलोचना (आलोपण)-आचार्य के समक्ष सरल भाव से आत्मनिंदा पूर्वक अपने दोषों को प्रकट करना आलोचना है। इसके द्वारा श्रमण तीन शल्यों (माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन) को दूर कर देता है। इससे हृदय में निर्मलता का संचार होता है और अन्तर-जीवन निर्दोष बनता है। __ आलोचना जिन दोषों से रहित होकर की जाती है वे दस दोष निम्नलिखित हैं -१. आकम्पित-अन्न, पान, उपकरण आदि देकर आचार्य को अपना आत्मीय बनाकर दोषों का निवेदन करना। २. अनुमानित-शरीर की शक्ति, आहार और बल की अल्पता दिखाकर अनुनयपूर्वक दीन वचनों से आचार्य को अनुमत करना, उनके मन में करुणा उत्पन्न कर दोष निवेदन करना । ३. यदृष्टजो दोष दूसरे साधु देख चुकें उनकी तो आलोचना कर लेना, बाकी दोष छिपा लेना । ४. बादर-बड़े दोष कहना, छोटे छिपाना । ५. सूक्ष्म-छोटे दोषों का निवेदन करना, बड़े छिपा लेना । ६. छन्न- इसका अर्थ प्रच्छन्न किया है अर्थात् किसी मिस (बहाने) दोष कथन कर उस दोष का उपयुक्त प्रायश्चित्त अपने गुरू से जानकर स्वतः प्रायश्चित्त ले लेना। ७. शब्दाकुलित-जब सभी मिलकर एक साथ पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण कर रहे हों उसी समय बीच में अपने दोष निवेदन करना ताकि आचार्य या दूसरे साधु १. स्थानांग (ठाणं) १०७३ पृष्ठ ९१७ भगवती मूत्र २५१७।९ तथा धवला १३।५, ४, २६।६३।१. २. तत्त्वार्थसूत्र ९।२२, तत्त्वार्थवार्तिक, ९।२२, पृष्ठ ६२०. ३. मूलाचार वृत्तिसहित ५।१६५. ४. आकंपिय अणुमाणिय जं दिळं वादरं च सुहुमं च । छण्णं सद्दाकुलियं बहुजणमवत्त तस्सेवी । वही सवृत्ति ११११५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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