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________________ उत्तरगुण : १८७ वर्ग (साधुलोक) के मन को प्रसन्न तथा शुद्ध करने वाला कार्य प्रायश्चित्त कहा जाता है। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि प्रमादजनित दोषों के निराकरण, भावों की प्रसन्नता, शल्य रहित होना, अव्यवस्था का निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढ़ता तथा आराधना की सिद्धि के उद्देश्य से श्रमण को प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्ध होना आवश्यक है।' मूलाचार में कहा है पूर्वकाल में किये हुए पापों का विनाश करके जिसके द्वारा आत्मा को निर्मल बनाया जाये वह प्रायश्चित्त तप है। इस तरह यह तप दोषों (पापों) की विशुद्धि की उत्तम प्रक्रिया है। इस तप में अपने अशुभ आचरण के प्रति ग्लानि प्रकट करने के उद्देश्य से पश्चाताप, आलोचना तथा अपने गुरु के समक्ष दोष निवेदन करके याग्य दण्ड की याचना और उसकी स्वीकृति के भाव निहित हैं। इस तप का आचरण करने के लिए श्रमण को विनम्र, सरल, निष्कपट हृदय युक्त तथा सद्भावनापूर्ण मन वाला होना आवश्यक है क्योंकि प्रायश्चित्त तप चिकित्सा (उपचार) जैसा होता है । जैसे किसी रोगी के उपचार (चिकित्सा) का उद्देश्य उसे कष्ट देना या दुःखी करना नहीं अपितु रोग दूर करना है, वैसे ही प्रायश्चित्त का उद्देश्य श्रमण के दोष दूर करना है। श्वेताम्बर परम्परा के जीतकल्प सूत्र में कहा है कि संवर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा संवर और निर्जरा का कारण तप है। तयों में प्रायश्चित्त तप प्रधान है। अतः मोक्षमार्ग की दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्व है। मूलाचार में प्रायश्चित्त के अन्यान्य आठ नामों (पर्यायवाची शब्दों) का उल्लेख है-पूर्वकर्मक्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुञ्छन, उत्क्षेपण और छेदन । भेदः-प्रायश्चित्त तप के दस भेद हैं-१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ९. परिहार और १०. श्रद्धान ।५ १. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२।१ पृष्ठ ६२०. २. पायच्छित्तं त्ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं-मूलाचार ५११६४. ३. जोतकल्प सूत्र गाथा २. ४. पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं । पुंछणमुच्छिवणं छिदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाई ॥ मूलाचार ५।१६६ ५. आलायणपडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो। ___ तव छेदो मूलं वि य परिहारो चेव सद्दहणा ॥ मूलाचार ५।१६५, ११।१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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