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१८६ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
विषयों में व्याकुलित चित्तवाला प्राणी रत्नत्रय तथा अन्यान्य सभी गुण-धर्मों में स्थिर नहीं रह पाता अपितु अशुभ संकल्प-विकल्पों में गोता लगाता रहता है । बाह्यतप पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय-सुखों के प्रति उदासीनता लाने, कष्ट सहिष्णु बनने, आलस्य दूर करने, शरीर से ममत्व भाव दूर करने तथा आत्म कल्याण में प्रवृत्त रहने में अत्यधिक सहयोगी बनते हैं। इतना ही नहीं बाह्यतप के द्वारा स्व-आत्मा, अपना कुल, गण अर्थात् अपने गुरु तथा उनकी शिष्य परम्परा और प्रवचन अर्थात् जिनमत--इन सबको भी मुनि सुशोभित करता है।' आभ्यन्तर तप :
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान-ये छह आभ्यन्तर तप हैं । ये सभी अन्तः में चलने वाली प्रक्रियाओं के रूप हैं । प्रशस्त चिन्तन, मनन और अनुशीलन द्वारा मन को एकाग्र, शुद्ध और निर्मल बनाना-यह आभ्यन्तर तप की विधि है। भट्ट अकलंक ने कहा है कि ये प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते, अन्तः करण के व्यापार से होते हैं तथा अन्य मतानुयायियों द्वारा ये तप अनभ्यस्त और अप्राप्त होने से इन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं । सन्मार्ग अर्थात् मुक्तिमार्ग रूप रत्नत्रय के ज्ञाता जिनका आचरण करते है वे आभ्यन्तर तप हैं । ये तप शुभ और शुद्ध परिणामरूप होते हैं । इनके बिना मात्र बाह्य तप निर्जरा में समर्थ नहीं होते। यहाँ आभ्यन्तर तप के पूर्वोक्त छह भेदों का क्रमशः स्वरूप प्रस्तुत है-- १. प्रायश्चित्त (पायच्छित्त) तप:
व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्रायः+चित्त-इन दो शब्दों से प्रायश्चित्त शब्द बना है। प्रायः का अर्थ अपराध और चित्त का तात्पर्य शोधन, संशोधन-प्रमार्जन है । इस दृष्टि से वह क्रिया प्रायश्चित है जिसके करने से अपराध की शुद्धि हो ।' अथवा प्रायः शब्द का अर्थ लोक (साधुलोक) भी होता है, उसका जिस कार्य में चित्त प्रसन्न होता है वह प्रायश्चित है। इस तरह अपने साधर्मी
१. आदा कुलं गणो पवयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं-भ० आ० २४२. २. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२० पृष्ठ ६२०. अनगारधर्मामृत ७।३३. ३. भगवती आराधना गाथा १३४८ ४. विजयोदया टोका १०७ पृष्ठ २५४. ५. अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धि, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिः
-तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२।१. पृष्ठ ६२०. ६. प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम्-वही.
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