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उत्तरगुण : १८५ में स्थिर रह पाता है और जो अपने आपको भयभीत नहीं करता, वही सामायिक समाधि की साधना कर सकता है।'
श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग, भगवती, तथा औपपातिक सूत्र आदि कुछ प्रमुख ग्रन्थों में विविक्तशयनासन के स्थान पर प्रतिसंलीनता (पडिसंलीणता) नामक तप माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में बाह्यतप के भेदों की गणना में इसका "संलीनता" नाम से उल्लेख है। किन्तु इसके स्वरूप-कथन के प्रसंग में विविक्तशयनासन नाम से ही इसका उल्लेख मिलता है।४ औपपातिकसूत्र में प्रतिसंलीनता के इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलोनता और विविक्तशयनासन-ये चार भेद करके विविक्तशयनासन को प्रतिसंलीनता का एक भेद स्वीकृत किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र तथा इसकी टीकाओं, अनगार धर्मामृत टीका एवं मूलाचारप्रदीप आदि ग्रन्थों में विविक्तशयनासन तप को पांचवां तथा कायक्लेश तप का क्रम छठा माना है। जबकि भगवती आराधना और मूलाचार आदि ग्रन्थों में कायक्लेश को पांचवां तथा विविक्तशयनासन को छठा तप माना है।"
इस प्रकार ये बाह्यतप आत्मा को सन्मार्ग में तत्पर बनाये रखने के अपूर्व साधन हैं । श्रमण को जितेन्द्रिय बनाने में बाह्यतप को महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । शिवार्य ने कहा है-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान और रसपरित्यागइन चार तपों के द्वारा मुख्य रूप से रसना (जिह्वा) इन्द्रिय पर विजय प्राप्त की जाती है। कायक्लेश और विविक्तशयनासन-ये दो तप स्पर्शन, घ्राण, चक्षु और कर्णेन्द्रिय-इन चार इन्द्रियों तथा इनके विषयों के प्रति अनासक्त बनाने में सहयोग करते हैं। मन का संयमन तो सभी तपों से होता ही है। वस्तुतः
१. सूत्रकृतांग १।२।२।१७. २. भगवती सूत्र २५।७. स्थानांग ६:६५. औपपातिक सत्र १९. ३, अणसणमणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ।
कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ । उत्तराध्ययन ३०।८. ४. एगन्तमणावाए इत्थी पसुविवज्जिए ।
समणासणसेवणया विवित्तसयणासणं । वही ३०।२८. ५. औपपातिक सूत्र १९. ६. तत्त्वार्थसूत्र ९।१९. अनगार धर्मामृत ७१४ की ज्ञानदीपिका वृत्ति, मूलाचार
प्रदीप ६।१६५. ७. भगवती आराधना गाथा २०८, मूलाचार ५।१४९. ८. भगवती आराधना २३८.
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