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१८४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
भाराम (क्रीड़ा) घर-इन विविक्त वसतियों में रहना विविक्तशयनासन तप है।' भट्ट अकलंक ने भी कहा है कि बाधानिवारण, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि के लिए निर्जन्तुक शन्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थान में उठनाबैठना, सोना आदि कार्य करना विविक्तशय्यासन तप है ।२ __ श्रमण को ऐसे एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि वाला होना चाहिए जो शन्य हों, जैसे श्मशान, तरूतल, वन तथा परकृत अर्थात् जो साधु के निमित्त न बनाये गये हों। एकांत और अनापात-जहाँ अधिक लोगों का आना-जाना न हो, स्त्रियों, पशुओं आदि से रहित, शान्त स्थान में शयन-आसन करना विविक्तशयनासन तप है। तभी अल्प आहार करने वाले, इन्द्रियों पर संयम रखने वाले और विविक्त शयनासन का सेवन करने वाले श्रमण को राग रूप शत्रु आक्रांत नहीं कर सकता।" यह तप चित्त की व्यग्रता दूर करने के लिए किया जाता है । अतः व्यग्र करने वाले कलहपूर्ण शब्द, संक्लेशपरिणाम, असंयत जनों की संगति, ध्यान-अध्ययन का विघात आदि बातों का विविक्त वसतिका में अभाव होने से एकान्तवासी श्रमण मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों से दूर, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करते हुए आत्म-स्वरूप में लीन रहते हैं । समाधि की कामनायुक्त तपस्वी श्रमण को ध्यानादि साधना के लिए विवेक के योग्य-एकान्त स्थान में ठहरना चाहिए।" ___ इस तप की पृष्ठभूमि में दो उद्देश्य निहित हैं : १. अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना और २. कष्टसहिष्णुता, निर्भयता तथा निर्ममत्व-भाव का अभ्यासी बनना। मूलाचार में अखंड ब्रह्मचर्य साधना के लिए निर्विघ्न तपश्चरण पर विशेष बल दिया है। तभी तो स्त्री जाति मात्र तथा गृहस्थजनों के संसर्ग के त्याग का नाम विविक्तशयनासन तप कहा है। सूत्रकृतांग के अनुसार इस तप का आचरण करने वाले श्रमण को जब तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवकृत उपसर्गों
१. सुण्ण घरगिरिगुहारुक्खमूलआगंतुगारदेवकुले ।
अकदप्पन्भारारामघरादीणि य विवित्ताई ।। भगवती आराधना २३१. २. तत्त्वार्थवार्तिक ९।१९।१२ पृष्ठ ६१९. ३. उत्तराध्ययन ३५१६, धवला १३।५।४, २६।५८१८. ४, वही ३०१२८. ५. वही ३२।१२. ६. भगवती आराधना २३२-२३३. ७. उत्तराध्ययन ३२।४.
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