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उत्तरगुण : १८३
कायक्लेश तप का मूल उद्देश्य शरीर को किसी प्रकार का कष्ट देना मात्र नहीं है अपितु इसमें उपर्युक्त योग विधियों के द्वारा शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव उत्पन्न कर आत्मा में स्थित अनन्त शक्तियों की जागृति, आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति तथा आत्मकल्याण की भावना निहित है । वस्तुतः जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ते हैं वे सभी व्यवहार योग हैं । इसीलिए जिस किसी प्रकार से शरीर को परिताप देने का नाम ही कायक्लेश नहीं किन्तु उक्त आसनों आदि से शरीर को जो कष्ट होता है उसका नाम कायक्लेश है | धवला में कहा है कि शीत, वात, आतप और उपवासों द्वारा क्षुधा, तृषा आदि बाधाओं को सहनकर वीर आदि आसनों से ध्यान का अभ्यास किया जाता है ।" इसमें श्रमण को यह चिन्तन करना चाहिए कि जो परीषह, कष्ट आदि हैं वे आत्मा में नहीं अपितु शरीर में होते हैं और यह शरीर मेरा नहीं है । यही चिन्तन कायक्लेश तप का आध्यात्मिक आधार है । इससे देहासक्ति और देहाध्यास को कम करने का बल प्राप्त होता है । पूज्यपाद ने कहा है- शारीरिक कष्ट की सहनशक्ति, प्रवचन की प्रभावना तथा सुखों से अनासक्तभाव की प्राप्ति हेतु यह तप करना योग्य है ।
६. विविक्तशयनासन (विवित्तसयणासण ) तप :
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सामान्यतः इसका अर्थ है बाधा रहित एकान्त स्थान में रहना । मूलाचार में कहा है कि तिर्यञ्च ( पशु आदि ), मनुष्य सम्बन्धी स्त्रीजाति, सविकारिणी देवी अर्थात् भवनवासी, व्यन्तरादि से सम्बन्धित देवांगनायें तथा गृहस्थ - इन सबसे संसक्त घर, आवास आदि तथा अप्रमत्तजनों के संसर्ग से रहित एकान्त स्थानों में रहना विविक्तशयनासन तप है । भगवती आराधना में भी कहा है-जिस वसति में मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श के द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते अथवा स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता - वे विविक्त वसति हैं ।" अतः शून्यघर, गिरिगुफा, वृक्षमूल, आगन्तुकों के निमित्त निर्मित घर, देवकुल, शिक्षागृह, अकृत ( किसी के द्वारा नहीं बनाया गया ) स्थान,
१. धवला १३१५, ४, २६/५८.५.
२. आचारांग ११८८२१.
३. सर्वार्थसिद्धि ९।१९.
४ तेरिक्खि माणुस्सियस विगारिणिदेविगेहि संसत्ते ।
वज्जेंति अप्पमत्ता लिए सयणासण द्वाणे || मूलाचार ५। १६०
५. जत्थ ण विसोत्तिग अस्थि दु सद्द रसरूवगन्धफासे हि ।
सज्झायज्झाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा ॥ भगवती आराधना २२८
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