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१८२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन जंघाओं को सिकोड़कर गाय की तरह बैठना । ८. अर्धपर्यङ्क-एक जंघा के अधोभाग को एक पैर पर टिकाकर बैठना । ९. वीरासन-दोनों जंघाओं को योग्य अन्तर से फैलाकर बैठना ।'
शयनयोग के निम्नलिखित भेद किये हैं-१. दण्डायत-दण्ड के समान शरीर को लम्बा करके सोना। २. ऊर्ध्वशयन-खड़े होकर सोना । ३. लगंड शयन-शरीर को संकुचित करके सोना । ४. उत्तानशयन-ऊपर को मुख करके (सीधे लेटकर) सोना। ५. अवमस्तक शयन-नीचे मुख करके (औंधा होकर) सोना । ६. एकपार्श्व शयन-दाई या बाई करवट (पाच) से सोना । ७. मृतक शयन-मृतक की तरह निश्चेष्ट सोना तथा ८. अभ्रावकाश शयनखुले आकाश में सोना।
अपरिकर्मयोग के निम्नलिखित भेद हैं-१. अनिष्ठीवन-नहीं थकना । २. अकण्डूयन-नहीं खुजलाना । ३. तृण-फलक-शिला-भूमि-शय्या-तृण अर्थात् घास, काष्ठ-फलक (चौकी आदि), शिला और भूमि पर सोना । ४. केशलोचबालों को हाथों से उखाड़कर अलग करना। ५. अभ्युत्थान--रात में शयन नहीं करना अर्थात् जागना। ६. अस्नान-स्नान नहीं करना। ७. अदन्तधावनदातों को नहीं धोना तथा ८. शीत-उष्ण-आतपन योग-अर्थात् ठण्डी, गर्मी और धूप सहन करना। ___इस प्रकार उपर्युक्त सभी योगों और उनके अन्तर्गत भेदों से संबंधित विषयों को कायक्लेश के ही अन्तर्गत माना गया है।
स्थानांगसूत्र तथा औपपातिकसूत्र' आदि ग्रन्थों में कायक्लेश तप के आसनों आदि की दृष्टि से अनेक प्रकार के भेद किये गये हैं, जो भगवती आराधना के उपर्युक्त प्रायः सभी भेदों के अन्तर्गत आ जाते हैं । १. समपलियंकणिसेज्जा समपदगोदोहिया य उक्कुडिया।
मगरमुह हत्थिसुण्डी गोणिसेज्जद्धपलियंका ।। भगवती आराधना २२४. २. वीरासणं च दण्डायउढ्ढसाई य लगडसाई य ।
उत्ताणो मच्छिय एगपाससाइ य मडयसाई य ॥ वही २२५. ३. अब्भावगाससयणं अणिवणा अकंडुगं चेव ।
तणफलयसिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचो य ॥ अन्भुट्ठणं च रादो अण्हाणमदंतधोवणं चेव ।
कायकिलेसो एसो सीदुण्हादावणादि य ॥ वही २२६,२२७. ७. स्थानांग सूत्र ७।४९. ५. औपपातिक सूत्र १९.
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