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उत्तरगुण : १८१ स्थानयोग, शयनयोग और अपरिकर्मयोग - इन पाँच योगों में कायक्लेश तप को विभक्त किया गया है ।"
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- जिस ग्राम में मुनि
( ६ ) गत्वा प्रत्यागमन
गमनयोग के अन्तर्गत (१) अनुसूर्य गमन अर्थात् कड़ी धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना । (२) प्रतिसूर्य - पश्चिम दिशा से सूरज की ओर मुख करके पूर्व की ओर जाना । ( ३ ) ऊर्ध्वसूर्य गमन - मध्याह्न में सूर्य जब ऊपर बीचों-बीच आ जाये तब गमन करना । ( ४ ) तिर्यक्सूर्य गमन - - सूर्य जब तिरछा हो तब गमन करना । ( ५ ) उद्भाग ( उद्भ्रमक) ठहरा हो उस ग्राम से दूस ग्राम भिक्षार्थ जाना तथा दूसरे गाँव जाकर पुन: अवस्थित गाँव लौट आना । स्थानयोग के अन्तर्गत ( १ ) साधारण - चिकने लेकर खड़े होना । (२) सवीचार --- जहाँ पहले खड़े थे उस पूर्व स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर प्रहर, दिन आदि रूप निश्चित समय तक खड़े रहना । ( ३ ) सनिरुद्ध - स्व-स्थान पर निश्चल खड़े रहना । ( ४ ) व्युत्सर्ग - कायोत्सर्ग करना । (५) समपाद - दोनों पैर बराबर करके खड़े रहना । ( ६ ) एकपाद - एक पैर पर खड़े रहना तथा (७) गृद्धोड्डीन ( गिद्धोलीण ) - जैसे गीध आकाश में उड़ते समय अपने पंख फैला लेता है उसी तरह अपनी दोनों बाहें फैलाकर खड़े रहना — सात स्थानों के भेद सम्मिलित हैं । ३
स्तम्भ आदि का आश्रय
आसनयोग में निम्नलिखित आसन भेदों का विवेचन है- १. समपर्यंङ्कसम्यक् पर्यकासन से बैठना अर्थात् दोनों जंघाओं को दोनों पैरों पर टिकाकर बैठना । २. समपद - जंघा और कटि भाग को सम करके बैठना । ३. गोदोहिकागाय दुहते समय जिस प्रकार की आसन से बैठा जाता है उस आसन से बैठना अर्थात् घुटनों को ऊँचा रख पंजों के बल बैठकर दोनों हाथों को दोनों सांथलों पर टिकाकर गाय दुहने की मुद्रा में बैठना । ४. उत्कुटिका - उकडू होकर बैठना अर्थात् एड़ी और नितम्बों को ऊँचा रखकर ( नितम्बों से भूमि को न छूते हुए ) बैठना । ५. मकरमुख — मगर के मुख की तरह पैर करके बैठना । ६. हस्तिसुंडी - हाथी की सूंड फैलाने की तरह एक पैर फैलाकर बैठना । ७. गो-निषद्या — दोनों
गमन
१. भगवती आराधना गाथा २२२ से २२७ तक.
२. अणुसूरी पडिसूरी य उढसूरी य तिरियसूरी य ।
उब्भागेण य गमणं पडिआगमणं च गंण ।। वही २२२.
३. साधारणं सवीचारं सणिरुद्धं तहेव तोसट्ट । सेमपादमेगपादं गिद्धोलीणं च ठाणाणि ।। वही २२३.
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