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________________ १८० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन श्वेताम्बर परम्परा में इसे वृत्तिसंक्षेप' तथा भिक्षाचरी नाम से इसे तृतीय तप माना है। मूलाचार में कहा है कि आहारार्थ जाने से पूर्व भिक्षा से सम्बद्ध गोचर (गृह) प्रमाण, वाता, भाजन (पात्र) तथा अशन आदि विविध प्रकार के अभिग्रह या संकल्पपूर्वक वृत्ति करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । मूलाचारवृत्ति में इस का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि गोचर प्रमाण से तात्पर्य घरों के प्रमाण का संकल्प लेकर आहारार्थ निकलना है। जैसे यदि इतने घरों में आहार मिलेगा तो करूंगा अन्यथा नहीं । दाता का संकल्प अर्थात् यदि वृद्ध, जवान आदि संकल्पानुसार दाता विशेष ही मेरा प्रतिग्रह करेगा (पड़गाहेगा) तभी उसके घर में उससे आहार ग्रहण को जाऊँगा अन्यथा नहीं । भाजन संकल्प से तात्पर्य है कि यदि कांसे, पीतल आदि धातु विशेष पात्र या भाजन लिए हुए पड़गाहना करेगा, तभी आहार ग्रहण को उसके घर में जाउँगा अन्यथा नहीं। इसी तरह अशन जैसे चावल, सक्तु आदि संकल्पित अशनविशेष मिलेगा तभी आहार करूँगा अन्यथा नहीं । इस प्रकार अपनी शक्ति के अनुसार विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करके भिक्षा ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। कठिनता और विधिपूर्वक आहार प्राप्त हो पाने की दृष्टि से इस तप के अन्तर्गत नियमों की बात कही गयी है। इससे आशा, लोलुपता तथा अन्तरायकर्म आदि का उच्छेद होता है तथा धैर्य गुण में वृद्धि होती है। श्रमण को अपनी वत्तियों का कठोर संयम करना होता है । धवला में कहा है इन्द्रिय संयम तथा भोजनादि के प्रति रागवृत्ति को सर्वथा दूर करने के लिए श्रमण को यह तप अवश्य करना चाहिए।' ५. कायक्लेश (कायकिलेस) तप : स्थान, शयन, आसन आदि धर्मोपकार के हेतुभूत विविध साधनों से शास्त्रानुसार विवेकपूर्वक वृक्षमूल, अभ्रावकाश, आतापनादि से शरीर को परिताप (क्लेश) देना कायक्लेश तप है। इस संक्षिप्त परिभाषा का विशेष स्पष्टीकरण भगवती आराधना में मिलता है। यहाँ आसनयोग, गमनयोग, १. समवायांग समवाय ६. २. उत्तराध्ययन ३०८. ३. गोयरपमाणदायगभायणणाणाविधाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविधस्स य वुत्तिपरिसंखा ॥ मूलाचार ५।१५८. ४. मूलाचारवृत्ति ५।१५८. ५. धवला १३३५, ४, २६।५६।६ ६. ठाणसयणासहिं य विविहेहिं य उग्गयेहि बहुएहिं । अणुवीचीपरिताओ ‘कायकिलेसो हवदि एसो । मूलाचार ५।१५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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