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उत्तरगुण : १७९ उल्लेख किया है। इनमें से नवनीत कांक्षा अर्थात् तीब्र विषयाभिलाषा को उत्पन्न करता है । मद्य अर्थात् मदिरा (शराब) पुनः पुनः अगम्या स्त्री के साथ भोग-विलास कराती है। मांस दर्प उत्पन्न करता है । मधु इन्द्रिय तथा प्राणि असंयम को उत्पन्न करता है। अतः सर्वज्ञ की आज्ञा के प्रति आदरवान्, पापभीरु तया तप में एकाग्रता के अभिलाषी श्रमण इन सब महाविकृतियों को संयम-ग्रहण के पूर्व हो सदा के लिए छोड़ देते हैं क्योंकि इन सबके सेवन से घोर अहिंसा और असंयम आदि होता है जो कर्मबन्ध का कारण है। उत्तराध्ययन में कहा है-रसों का प्रकाम अर्थात् यथेच्छ उपभोग नहीं करना चाहिए । ये मनुष्य को प्रायः दृप्तिकर अर्थात् उन्माद बढ़ाने वाले होते हैं | विषयासक्त मनुष्य को वैसे ही काम उत्पीडित करते हैं जैसे स्वादु फलवाले वृक्षों को पक्षी । यथेच्छ भोजन करने वाले की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती। ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के लिए तो प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है । विशेष इन्द्रिय स्वाद के अनुराग से किया गया यथालव्ध आहार भी हिंसा का स्थान होता है । भगवती आराधना में कहा है कि दूध, दही आदि उपर्युक्त द्रव्यों और रसों में से सबका अथवा एक-एक का त्याग भी रसपरित्याग है। शरीर सल्लेखना करने वालों को इस तप का विशेष पालन करना चाहिए ।
यह तप प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि जिह्वा-इन्द्रिय के निरोध से सब इन्द्रियों का निरोध हो जाता है । और सब इन्द्रियों के निरोध से असंयम का निरोध हो जाता है। यह एक प्रकार का आस्वाद व्रत रूप तप है। रसनेन्द्रिय की स्वादवृत्ति पर विजय की साधना इसमें सन्निहित है। ४. वृत्तिपरिसंख्यान (वृत्तिपरिसंखा) तप :
भोजन, भाजन (पात्र), घर, बार (मुहल्ला) इन्हें वृत्ति कहते हैं । इस वृत्ति का परित्याग अर्थात् परिमाण, नियंत्रण, ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इसे
१. मूलाचार ५।१५६, ६५७ तथा भ० आ० २१३, २१४. टीका सहित. २. उत्तराध्ययन ३२।१०-११. ३. प्रवचनसार वृत्ति० ३।२९, पृ० २८४. ४. भगवती आराधना २१५, ११७. ५. धवला १३।५,४,२६।५७।१०. ६. भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा वुत्ती णाम । तिस्से बुत्तिए परिसंखाणं गहणं
वुत्तिपरिसंखाणं णाम-धवला १३१५, ४, २६१५७।४.
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