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________________ १७८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन पूरी तृप्ति न हो-यह अपने आप में तप ही है। क्योंकि मात्रा से अधिक आहार ग्रहण तो प्रमाणातिक्रांत दोष है। ऐसा करने वाला साधु प्रकामभोजी तथा बहुभोजी कहा जाता है ।' जितने आहार से शरीर टिका रह सके उतने (परिमित) आहार को शिवार्य ने "जवणाहार" कहा है ।। आचार्य वट्टकेर ने कहा है-उत्तम क्षमादि दस धर्म, षडावश्यक, आतापन आदि योग, ध्यान, स्वाध्याय और चारित्र-इन सबके पालन तथा निद्राविजय में यह अवमौदर्य तप उपग्रह (उपकार) करता है। इतना ही नहीं अपितु इस तप से इन्द्रियाँ स्वछन्द प्रवृति नहीं करती और अपने वश में रहती हैं । उववाई सुत्त में इस तप के द्रव्यतः और भावतः-ये दो भेद किये हैं। जिसका जितना आहार है उसमें से कम से कम एक या इससे भी कम ग्रास आहार करना द्रव्यतः अवमौदर्य तप है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ के शब्दप्रयोग एवं कलह कम करना भावतः अवमौदर्य (ऊनोदरी) तप है। यह तप उन श्रमणों को अवश्य करना चाहिए जो विशेष रूप में पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, अथवा जिन्हें उपवास से अधिक थकान आतो है ।" पूज्यपाद ने कहा है संयम को जागृत रखने, दोषों को प्रशम करने, संतोष और स्वाध्याय आदि को सुखपूर्वक सिद्धि के लिए अवमौदर्य तप किया जाता है । ३. रसपरित्याग (रसपरिचाओ) तप : आस्वादन रूप क्रिया-धर्म का नाम रस है । इस दृष्टि से दूध, दही, घी, तेल, गुड़, नमक आदि द्रव्यों तथा कटु, तिक्त, कषायला, अम्ल और मधुरइस रसों का पूर्णतः त्याग करना रसपरित्याग तप है। ये द्रव्य और रस प्रासुक भी हों तो भी तपो-वृद्धि के उद्देश्य से इनका सेवन योग्य नहीं है । मूलाचार में नवनीत, मद्य, मांस और मधु-इन चारों का महाविकृतियों के रूप में १. भगवती सूत्र ७.१. २. भगवती आराधना २४४. ३. धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि । ____ण य इंदियप्पदोसयरी उमोदरियतवोवुत्तो ।। मूलाचार ५।१५४. ४. उववाइय पूर्वार्द्ध ३८-४२, उत्तराध्ययन ३०।१५. ५. धवला १३१५, ४।२६।५६।१२. ६. सर्वार्थसिद्धि ९।१९ पैरा० ८५६. ७. खीरदहिसप्पितेल गुडलवणाणं च ज परिच्चयणं । तिक्तकटुकसायंविलमधुररसाणं च जं चयणं ।। मूलाचार ५।१५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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