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________________ उत्तरगुण : १७५ करना, (३३) अणुसटिठ-निर्यापकाचार्य जो शिक्षा देते हैं वह अनुशष्टि है, (३४) सारणा-दुःख से पीड़ित मूर्छा को प्राप्त चेतना रहित आराधक को सचेत करना, (३५) कवच-इस समय का दुःख सब दुःखों का अन्त करने और अनुपम सुख देने वाला है-इस प्रकार दुःख दूर करने के गुण की समानता, (३६) समदा-समभाव, (३७) झाण-ध्यान, (३८) लेस्सालेश्या अर्थात् कषाय से अनुरक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति, (३९) फलआराधना के द्वारा प्राप्त साध्य का फल, और (४०) विजहणा-अन्त में आराधक के शरीर त्याग को विजहणा कहते हैं। इन चालीस अधिकार सूत्रों से सविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण का कथन किया जाता है। अर्थात् जो इस विधि को ग्रहण करता है उसके संबंध में इन अधिकार सूत्रों के आधार पर योग्यता आदि पर विचार करना चाहिए । २. इंगिनीमरण-इंगिनीमरण से तात्पर्य अपने (आत्मा के) इंगित अर्थात अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है उसे इंगिनीमरण कहते हैं। इसमें शारीरिक चेष्टाओं तक को नियमित कर लिया जाता है कि मैं इस क्षेत्र की मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा । इस मरण में स्वयं ही अपनी वैयावृत्ति कर सकता है । दूसरे से वैयावृत्ति कराने का विधान नहीं है । भगवती आराधना में कहा है कि अपने संघ को इंगिनीमरण की विधि की साधना में योग्य करके आचार्य अपने चित्त में यह निश्चय करे कि मैं इंगिनीमरण की साधना करूँगा। तब शुभ परिणामों की श्रेणि पर आरोहण करके तप आदि की भावना करे और अपने शरीर और कषायों को कृश करे । रत्नत्रय में लगे दोषों की आलोचना, पूर्वक, अपने स्थान पर अन्य आचार्य को स्थापित कर मुनिसंघ से अलग होकर, जंगल की प्रासुक गुफा आदि में, एकाकी प्रतिलेखन पूर्वक तृणों के संस्तर पर आश्रय लेता है। अपने शरीर के सिवाय उसका अन्य कोई सहायक नहीं होता। समस्त प्रकार के आहार के विकल्प को जीवनपर्यन्त के लिए त्याग देता है । धैर्य के बल से युक्त वह क्षपक सब परीषहों को जीतता है और लेश्या विशुद्धि से सम्पन्न हो धर्मध्यान करता है । तप के प्रभाव से उन्हें विक्रिया ऋद्धि, आहारक ऋद्धि या चारण ऋद्धि अथवा क्षीरास्रव आदि ऋद्धियाँ प्रकट होती हैं किन्तु विरागी होने से उनका किञ्चित् भी सेवन नहीं करते । इस तरह इंगिनीमरण की साधना द्वारा कोई तो समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं तथा कोई-कोई मरकर वैमानिकदेव होते हैं ।२ १. भगवती आराधना गाथा २९ की विजयोदया टीका पृष्ठ ११३. २. भगवती आराधना गाथा २०३२-२०६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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